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परमसमाध्यधिकार
(पृथ्वी) जयत्यनघमात्मतत्त्वमिदमस्तसंसारकं महामुनिगणाधिनाथहृदयारविन्दस्थितम् । विमुक्तभवकारणं स्फुटितशुद्धमेकान्ततः सदा निजमहिम्नि लीनमपि सद्दशां गोचरम् ।।२११।। जस्स सणिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।। १२७।।
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( हरिगीत )
गणधरों के मनकमल थित प्रगट शुध एकान्ततः । भवकारणों से मुक्त चित् सामान्य में है रत सदा ॥ सद्दृष्टियों को सदागोचर आत्ममहिमालीन जो । जयवंत है भव अन्तकारक अनघ आतमराम वह ।।२११|| प्रगट हुए सहज तेजपुंज द्वारा, अति प्रबलमोहतिमिर समूह : को दूर करनेवाला तथा पुण्य-पापरूपी अघसेना की ध्वजा का हरण करने वाला सदा शुद्ध, चित्चमत्कारमात्र आत्मतत्त्व जगत में नित्य जयवंत है ।
जिसने संसार का अस्त किया है, जो महामुनिराजों के नायक गणधरदेव के हृदय कमल में स्थित है, जिसने भव के कारण को छोड़ दिया है, जो पूर्णत: शुद्ध प्रगट हुआ है तथा जो सदा निजमहिमा में लीन होने पर भी सम्यग्दृष्टियों को गोचर है; वह पुण्य-पाप से रहित आत्मतत्त्व जयवंत है ।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि लोक में तो अघ पाप को कहते हैं, पर आप यहाँ अघा अर्थ पुण्य-पाप के भाव कर रहे हैं। इसका क्या कारण है ?
यद्यपि लोक में अघ शब्द का अर्थ मात्र पाप किया जाता है; तथापि जिसप्रकार क का अर्थ पृथ्वी, ख का अर्थ आकाश होता है; उसीप्रकार घ का अर्थ भी आत्मा होता है । अत: आत्मा के आश्रय से उत्पन्न वीतरागभाव के अभावरूप शुभाशुभरागरूप पुण्य-पाप के भाव अघ कहे जाते हैं। इसप्रकार पुण्य-पाप ह्न दोनों अघ हैं।
इसप्रकार इन आठ छन्दों में अत्यन्त भावविभोर होकर सहज - वैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव निजकारणपरमात्मा के आश्रय की भावना व्यक्त कर रहे हैं ।। २१०- २११ ॥
इस आगामी गाथा में भी यही बता रहे हैं कि एकमात्र आत्मा ही उपादेय है ।