________________
परमसमाध्यधिकार
३२७
(अनुष्टुभ् ) अहमात्मा सुखाकांक्षी स्वात्मानमजमच्युतम् । आत्मनैवात्मनि स्थित्वा भावयामि मुहुर्मुहः ।।२०७।।
(शिखरिणी) विकल्पोपन्यासैरलमलममीभिर्भवकरैः अखण्डानन्दात्मा निखिलनयराशेरविषयः। अयं द्वैताद्वैतो न भवति ततः कश्चिदचिरात् तमेकं वन्देऽहं भवभयविनाशाय सततम् ।।२०८।।
(दोहा) कोई चाहे द्वैत को अर कोई अद्वैत । द्वैताद्वैत विमुक्त जिय मैं वंदूं समवेत ||२०६||
(सोरठा) थिर रह सुख के हेतु अज अविनाशी आत्म में।
भाऊँ बारंबार निज को निज से निरन्तर ||२०७|| कई लोग अद्वैत की चाह करते हैं और कई लोग द्वैत को चाहते हैं, किन्तु मैं तो द्वैत और अद्वैत मार्ग से विमुक्त मार्ग को नमन करता हूँ।
सुख की आकांक्षा रखनेवाला आत्मा अर्थात् मैं अजन्मे और अविनाशी अर्थात् जन्ममरण से रहित अनादि-अनंत निज आत्मा को आत्मा द्वारा, आत्मा में स्थित रखकर बारम्बार भाता हूँ।
उक्त तीनों छन्दों में द्वैत और अद्वैत के विकल्पजाल से मुक्त भगवान आत्मा को प्राप्त करने की भावना भायी गयी है ।।२०५-२०७।। इसके बाद आनेवाले दो शिखरिणी छन्दों का पद्यानवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) संसार के जो हेतु हैं इन विकल्पों के जाल से। क्या लाभ है हम जा रहे नयविकल्पों के पार अब || नयविकल्पातीत सुखमय अगम आतमराम को।
वन्दन करूँ कर जोड़ भवभय नाश करने के लिए।।२०८|| संसार को बढ़ानेवाले इन विकल्प कथनों से बस होओ, बस होओ। समस्त नयसमूह का अविषय यह अखण्डानन्दस्वरूप आत्मा द्वैत या अद्वैतरूप नहीं है: द्वैत और अद्वैत