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( मालिनी )
चित्तमुच्चैरजस्रम् ।
त्रसहतिपरिमुक्तं स्थावराणां वधैर्वा परमजिनमुनीनां अपि चरमगतं यन्निर्मलं कर्ममुक्त्यै तदहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि ।। २०४ ।। ( अनुष्टुभ् )
केचिदद्वैतमार्गस्था: केचिद् द्वैतपथे स्थिताः । द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमार्गे वर्तामहे वयम् । । २०५ ।। कांक्षंत्यद्वैतमन्येपि द्वैतं कांक्षन्ति चापरे । द्वैताद्वैत-विनिर्मुक्तमात्मान -मभिनौम्यहम् ।। २०६।।
उक्त आठ छन्दों में से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत )
जिन मुनिवरों का चित्त नित त्रस थावरों के त्रास से । मुक्त हो सम्पूर्णतः अन्तिम दशा को प्राप्त हो । उन मुनिवरों को नमन करता भावना भाता सदा ।
स्तवन करता हूँ निरन्तर मुक्ति पाने के लिए || २०४||
जिन परम जिन मुनियों का चित्त त्रस जीवों के घात और स्थावर जीवों के वध से अत्यन्त मुक्त है, निर्मल है तथा अन्तिम अवस्था को प्राप्त है। कर्मों से मुक्त होने के लिए मैं उन मुनिराजों को नमन करता हूँ, उनकी स्तुति करता हूँ और उन्हें सम्यक्रूप से भाता हूँ, वैसा बनने की भावना करता हूँ ।
नियमसार
उक्त छन्द में त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त चित्तवाले मुनिराजों को अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक नमस्कार किया गया है, उनकी स्तुति करने की भावना व्यक्त की गई है और उसीप्रकार के परिणमन होने की संभावना भी व्यक्त की गई है ।। २०४।।
इसके बाद तीन श्लोक (अनुष्टुभ्) हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार हैं
(दोहा)
कोई वर्ते द्वैत में अर कोई अद्वैत ।
द्वैताद्वैत विमुक्तम हम वर्तें समवेत ॥ २०५ ॥
कई लोग अद्वैत मार्ग में स्थित हैं और कई लोग द्वैत मार्ग में स्थित हैं; परन्तु हम तो द्वैत और अद्वैत मार्ग से विमुक्त मार्ग में वर्तते हैं।