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परमसमाध्यधिकार
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जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा । तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२६।।
यः समः सर्वभूतेषु स्थावरेषु त्रसेषु वा।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२६।। परममाध्यस्थ्यभावाद्यारूढस्थितस्य परममुमुक्षोःस्वरूपमत्रोक्तम् । य: सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणि: विकारकारणनिखिलमोहरागद्वेषाभावाद्भेदकल्पनापोढपरमसमरसीभावसनाथत्वात्त्रसस्थावरजीवनिकायेषुसमः, तस्य च परमजिनयोगीश्वरस्य सामायिकाभिधानव्रतं सनातनमिति वीतरागसर्वज्ञमार्गे सिद्धमिति ।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि मिथ्यात्व और कषाय के अभाव में भावलिंगी मुनिराज भूमिकानुसार सदा ही सामायिक में रहते हैं, समाधि में रहते हैं।।२०३||
अब इस गाथा में माध्यस्थभाव में आरूढ़ मुमुक्षु का स्वरूप कहते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत ) त्रस और थावर के प्रति अर सर्वजीवों के प्रति ।
समभावधारक संत को जिन कहेंसामायिकसदा ||१२६|| जो स्थावर अथवा त्रसह्न सभी जीवों के प्रति समभाव धारण करते हैं, उन्हें सामायिक स्थायी है ह ऐसा केवली शासन में कहा है। इस गाथा की टीका टीकाकार मुनिराज अत्यन्त संक्षेप में करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र “यहाँ, परममाध्यस्थभाव में आरूढ़ होकर स्थित परम मुमुक्षुओं का स्वरूप कहा है।
जो मुनिराज सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि हैं; वे मुनिराज, विकार के कारणभत समस्त मोह-राग-द्वेष के अभाव से भेदकल्पना से मुक्त और परमसमरसीभाव से सहित होने से समस्त त्रस-स्थावर जीव निकायों के प्रति समताभाववाले हैं।
उन परमजिन योगीश्वरों को; सामायिक नाम का व्रत सनातन है, सदा है, स्थायी है तू ऐसा वीतराग-सर्वज्ञ के मार्ग में सिद्ध ही है।"
वैसे तो हम ध्यान अवस्था को ही सामायिक कहते हैं; किन्तु यहाँ सभी प्रकार के समभाव को सामायिक कहा जा रहा है। यही कारण है कि त्रस-स्थावर जीवों के प्रति सदा समताभाववाले सन्तों को स्थायी सामायिक होती है ह यह कहा गया है ।।१२६।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज आठ छन्द लिखते हैं, जिनमें तीन श्लोक, दो मालिनी, दो शिखरिणी एवं एक पृथ्वी है।