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परमसमाध्यधिकार
विरत: सर्वसाव त्रिगुप्तः पिहितेन्द्रियः । तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने । । १२५ ।।
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इह हि सकलसावद्यव्यापाररहितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य सकलेन्द्रियव्यापारविमुखस्य तस्य च मुने: सामायिकं व्रतं स्थायीत्युक्तम् ।
( हरिगीत )
अनशनादि तपस्या समता रहित मुनिजनों की । निष्फल कही है इसलिए गंभीरता से सोचकर ॥ और समताभाव का मंदिर निजातमराम जो ।
उस ही निराकुलतत्त्व को भज लो निराकुलभाव से || २०२ ||
समताभाव रहित अनशनादि तपश्चरणों से कुछ भी फल नहीं है। इसलिए हे मुनि ! समताभाव का कुलमंदिर अर्थात् वंश परम्परागत उत्तम घर यह अनाकुल निजतत्त्व है; उसे भज, उसका भजन कर, उसकी आराधना कर ।
इसप्रकार हम देखते हैं कि १२४वीं गाथा की टीका और टीका में उद्धृत तथा टीकाकार द्वारा लिखे गये छन्दों में एक ही बात जोर देकर कही जा रही है कि आत्मानुभव के बिना बाह्य क्रियाकाण्ड से कुछ भी होनेवाला नहीं है । अतः इससे विरक्त होकर जो आजतक नहीं कर पाया, सद्गुरु के सहयोग से वह करने का प्रयास कर, सच्चे मार्ग की खोज कर । बाह्य क्रियाकाण्ड में उलझे रहने से कोई लाभ नहीं है ।। २०२ ।।
परमसमाधि का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस अधिकार की आगामी सभी गाथाओं में अर्थात् ९ गाथाओं में समाधिरूप सामायिक किन लोगों को होती ह्न यह समझाते हैं। इन सभी गाथाओं की दूसरी पंक्ति लगभग एक समान ही है।
उक्त नौ गाथाओं में सबसे पहली अर्थात् १२५वीं गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत )
जो विरत हैं सावद्य से अर तीन गुप्ति सहित हैं।
जितेन्द्रिय संत को जिन कहें सामायिक सदा || १२५ ||
जो सर्व सावद्य से विरत है, तीन गुप्तिवाला है और जिसने इन्द्रियों को बंद किया है, निरुद्ध किया है, कैद किया है; उसे सामायिक स्थायी है, सदा है ह्न ऐसा केवली के शासन में कहा है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"इस गाथा में सकल सावद्य से रहित, त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त तथा सभी इन्द्रियों के व्यापार से विमुख मुनिराजों को सामायिक व्रत स्थायी है ह्र ऐसा कहा है ।