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नियमसार
तथा हित
(द्रुतविलंबित) अनशनादितपश्चरणैः फलं समतया रहितस्य यतेन हि। तत इदं निजतत्त्वमनाकुलं भज मुनै समताकुलमंदिरम् ।।२०२।।
विरदो सव्वसावज्जे तिगुत्तो पिहिदिदिओ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२५।। इसके बाद अमृताशीति में भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) विपिन शून्य प्रदेश में गहरी गुफा के वास से। इन्द्रियों के रोध अथवा तीर्थ के आवास से।। पठन-पाठन होम से जपजाप अथवा ध्यान से।
है नहीं सिद्धि खोजलो पथ अन्य गुरु के योग से ||६४|| पर्वत की गहन गुफा आदि में अथवा वन के शून्य प्रदेश में रहने से, इन्द्रियों के निरोध से, ध्यान से, तीर्थों में रहने से, पठन से, जप और होम से ब्रह्म (आत्मा) की सिद्धि नहीं है।
इसलिए हे भाई! गुरुओं के सहयोग से भिन्न मार्ग की खोज कर। इसीप्रकार का भाव श्रीमद् राजचन्द्र ने भी व्यक्त किया है; जो इसप्रकार है ह्न
यम नियम संयम आप कियो पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो, बनवास लियो मुखमौन रह्यो दृढ़ आसन पदम लगाय दियो। मन पौन निरोध स्वबोध कियो हठ जोग प्रयोग सुतार भयो, जप भेद जपे तप त्यौहि तपे उरसे हि उदासि लही सबसे ।। सब शास्त्रन के नय धारिहिये मत मण्डन खण्डन भेद लिये, वह साधन बार अनन्त कियो, तदपी कछु हाथ हजू न पर्यो।
अब क्यौं न विचारत है मन में कछु और रहा उन साधन से ? इसमें कहा गया है कि तूने अपनी समझ से सुख-शान्ति प्राप्त करने के अनेक उपाय किये, पर सफलता हाथ नहीं लगी। ऐसी स्थिति में भी तू यह विचार क्यों नहीं करता कि कुछ ऐसा बाकी रह गया है, जो कार्यसिद्धि का असली कारण है।।६४।।
इसके बाद एक छन्द स्वयं टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न