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विकल्पनिर्मुक्तार्मुखाकारनिखिलकरण ग्रामागोचरनिरंजननिजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपं निश्चयशुक्लध्यानम् । एभि: सामग्रीविशेषैः सार्धमखंडाद्वैतपरमचिन्मयमात्मानं यः परमसंयमी नित्यं ध्यायति, तस्य खलु परमसमाधिर्भवतीति ।
नियमसार
( अनुष्टुभ् ) निर्विकल्पे समाधौ यो नित्यं तिष्ठति चिन्मये ।
द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमात्मानं तं नमाम्यहम् । । २०१।।
किं काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्तउववासो । अज्झयणमोणपहुदी समदारहियस्स समणस्स ।। १२४ ।।
के विकल्पों से रहित, अन्तर्मुखाकार, समस्त इन्द्रियों से अगोचर, निरंजन निज परमात्मतत्त्व में अविचल स्थिति निश्चय शुक्लध्यान है। इसप्रकार विशेष सामग्री से सहित, अखंड, अद्वैत, परमचैतन्यमय आत्माको, जो परमसंयमी नित्य ध्याता है; उसे वस्तुतः परमसमाधि है । "
इस गाथा और इसकी टीका में यही कहा गया है कि इन्द्रियों के व्यापार के परित्यागरूप संयम, आत्मा की आराधना में तत्परतारूप नियम, स्वयं को स्वयं में धारणरूप तप, स्वात्माश्रित निश्चय धर्मध्यान और निरंजन निज परमात्मतत्त्व में अविचल स्थितिरूप शुक्लध्यानरूप विशेष सामग्री सहित, अखण्ड, अद्वैत, परमचैतन्य आत्मा का ध्यान ही परमसमाधि है ।। १२३ ।।
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न ( हरिगीत )
निर्विकल्पक समाधि में नित रहें जो आतमा ।
गाथा
उस निर्विकल्पक आतमा को नमन करता हूँ सदा || २०१ ||
जो सदा चैतन्यमय निर्विकल्प समाधि में रहता है; उस द्वैताद्वैत के विकल्पों से मुक्त आत्मा को मैं नमन करता हूँ ।
उक्त छन्द में समाधिरत आत्मा को अत्यन्त भक्तिभाव से नमस्कार किया गया है ।। २०१ ।। विगत दो गाथाओं में परमसमाधि का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस १२४वीं यह बता रहे हैं कि समता रहित श्रमण के अन्य सभी बाह्याचार निरर्थक हैं । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
वनवास कायक्लेशमय उपवास अध्ययन मौन से । अरे समताभाव बिन क्या लाभ श्रमणाभास को || १२४||