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नियमसार
व्यापारो न कर्तव्यः । अत एव वचनरचनां परित्यज्य सकलकर्मकलंकपंकविनिर्मुक्तप्रध्वस्तभावकर्मात्मकपरमवीतरागभावेन त्रिकालनिरावरणनित्यशुद्धकारणपरमात्मानं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानेन टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वरूपनिरतपरमशुक्लध्यानेन च यः परमवीतरागतपश्चरणनिरतः निरुपरागसंयत: ध्यायति, तस्य खलु द्रव्यभावकर्मवरूथिनीलुंटाकस्य परमसमाधिर्भवतीति।
(वंशस्थ) समाधिना केनचिदुत्तमात्मनां
हृदि स्फुरन्तींसमतानुयायिनीम् । यावन्न विद्मः सहजात्मसंपदं
न मादृशां या विषया विदामहि ।।२००।। व्यापार (क्रिया) करने योग्य नहीं है। इसलिए समस्त वचनरचना को छोड़कर समस्त कर्मरूपी कलंकरूप कीचड़ से मुक्त भाव से एवं भावकर्म से रहित भाव से अर्थात् परम वीतरागभाव से तथा त्रिकाल निरावरण नित्य शुद्ध कारणपरमात्मा को; अपनी आत्मा के आश्रय से उत्पन्न निश्चय धर्मध्यान से एवं टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव में लीन परम शुक्लध्यान से जो परम वीतराग तपश्चरण में लीन निर्विकार संयमी ध्याता है; उस द्रव्यकर्म और भावकर्म की सेना को लूटनेवाले संयमी को वस्तुत: परमसमाधि होती है।"
उक्त गाथा और उसकी टीका में मूलत: यही कहा गया है कि परम समाधि की प्राप्ति उन शुद्धोपयोगी वीतरागी सन्तों को ही होती है; जो मन, वचन और काय संबंधी सभी रागात्मक विकल्पों से पार होकर पूर्ण वीतरागभाव से निर्विकल्प शुद्धोपयोग में समा जाते हैं।
यद्यपि यह परम सत्य है कि सभी प्रकार के शुभाशुभभाव करने योग्य नहीं हैं; तथापि छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले सन्तों के अशुभभाव से बचने के लिए कभी-कभी वीतरागी सर्वज्ञ परमात्मा की भक्ति और उनकी वाणी के श्रवण, अध्ययन, मनन-चिन्तन आदि के भाव भी आते रहते हैं; पर वे उपादेय नहीं हैं, विधेय नहीं हैं। अत: परमसमाधि के उपासक सन्तों को उनमें अधिक उलझना, निरन्तर उलझे रहना उचित नहीं है।।१२।।
इस गाथा की टीका समाप्त करते हए टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) समाधि बल से मुमुक्षु उत्तमजनों के हृदय में। स्फुरित समताभावमय निज आतमा की संपदा ।। जबतक न अनुभव करेंहम तबतक हमारे योग्य जो। निज अनुभवन का कार्य है वह हम नहीं हैं कर रहे||२००||