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नियमसार
___ अथात्रैकेन्द्रियादिप्राणिनिकुरंबक्लेशहेतुभूतसमस्तसावधव्यासंगविनिर्मुक्तः, प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तकायवाङ्मनसां व्यापाराभावात् त्रिगुप्तः, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियाणां मुखैस्तत्तद्योग्यविषयग्रहणाभावात् पिहितेन्द्रियः, तस्य खलु महामुमुक्षोः परमवीतरागसंयमिनः सामायिकं व्रतं शश्वत् स्थायि भवतीति।।
(मंदाक्रांता) इत्थं मुक्त्वा भवभयकरं सर्वसावद्यराशिं नीत्वा नाशं विकृतिमनिशं कायवाङ्मानसानाम् । अन्त:शुद्ध्या परमकलया साकमात्मानमेकं
बुद्ध्वा जन्तुः स्थिरशममयं शुद्धशीलं प्रयाति ।।२०३।। इस लोक में जो एकेन्द्रियादि प्राणियों को क्लेश के हेतुभूत समस्त सावध की आसक्ति से मुक्त हैं; मन-वचन-काय के प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त व्यापार के अभाव के कारण तीन गुप्तिवाले हैं और स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण नामक पाँच इन्द्रियों द्वारा उस-उस इन्द्रिय के योग्य विषय ग्रहण का अभाव होने से इन्द्रियों के निरोधक हैं; उन महा मुमुक्षु परम वीतरागी संयमियों को वस्तुतः सामायिक व्रत शाश्वत है, स्थायी है।" ___मुद्दे की बात यह है कि मिथ्यात्व और कषायों के अभाव में जिस भूमिका में जितनी शुद्धि प्रगट हुई है; वह एक प्रकार से सामायिक ही है। अत: भूमिकानुसार शुभाशुभभाव के सदभाव में भी मिथ्यात्व और भूमिकानुसार कषाय के अभाव में शुद्धपरिणतिरूप सामायिक विद्यमान रहती है। तात्पर्य यह है कि शुद्धोपयोग के काल में तो सामायिक है ही; ज्ञानी के अन्य काल में भी शुद्धपरिणतिरूप सामायिक है। इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि वे भावलिंगी मुनिराज सदा सामायिक में ही हैं कि जो समस्त सावध से मुक्त हैं, त्रिगुप्त हैं और पंचेन्द्रिय विषयों के निरोधक हैं ।।१२५।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) संसारभय के हेतु जो सावध उनको छोड़कर। मनवचनतन की विकृति से पूर्णत: मुख मोड़कर|| अरे अन्तशुद्धि से सद्ज्ञानमय शुद्धातमा।
को जानकर समभावमयचारित्र को धारण करें।।२०३|| इसप्रकार सदा सामायिक में रहनेवाले मुनिराज, भवभय करनेवाले समस्त सावध को छोड़कर, मन-वचन-काय की विकृति को नष्ट कर, अंतरंग शुद्धि से ज्ञानकला सहित एक आत्मा को जानकर स्थिर समतामय शद्ध शील को प्राप्त करते हैं।