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नियमसार
अत्र प्रसिद्धशुद्धकारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तपः प्रायश्चित्तं भवतीत्युक्तम् । आसंसारत एव समुपार्जितशुभाशुभकर्मसंदोहो द्रव्यभावात्मक: पंचसंसारसंवर्धनसमर्थः परमतपश्चरणेन भावशुद्धिलक्षणेन विलयं याति ततः स्वात्मानुष्ठाननिष्ठं परमतपश्चरणमेव शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमित्यभिहितम् ।
( मंदाक्रांता )
प्रायश्चित्तं न पुनरपरं कर्म कर्मक्षयार्थं प्राहुः सन्तस्तप इति चिदानंदपीयूषपूर्णम् । आसंसारा-दुपचित-महत्कर्मकान्तारवह्निज्वालाजालं शमसुखमयं प्राभृतं मोक्षलक्ष्म्याः । । १८९ ।।
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इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यहाँ यह कहा गया है कि प्रसिद्ध शुद्धकारणपरमात्मतत्त्व में सदा अन्तर्मुख रहकर जो प्रतपन होता है, वह तप है और वह तप ही प्रायश्चित्त है ।
भावशुद्धि लक्षणवाले परमतपश्चरण से पंचपरावर्तनरूप पाँच प्रकार के संसार का संवर्धन करने में समर्थ अनादि संसार से ही उपार्जित द्रव्यभावात्मक शुभाशुभ कर्मों का समूह विलय को प्राप्त होता है; इसलिए स्वात्मानुष्ठाननिष्ठ (निज आत्मा के आचरण में लीन) परमतपश्चरण ही शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है ह्र ऐसा कहा गया है। "
यहाँ मात्र यही कहा गया है कि तप से शुभाशुभ कर्मों का नाश होता है और शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है; इसलिए परमतप ही निश्चयप्रायश्चित्त है | | ११८ ॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(भुजंगप्रयात )
रे रे अनादि संसार से जो समृद्ध कर्मों का वन भयंकर । उसे भस्म करने में है सबल जो
मोक्षलक्ष्मी की भेंट है जो ॥ शमसुखमयी चैतन्य अमृत
आनन्दधारा से जो लबालब । ऐसा जो तप है उसे संतगण सब
प्रायश्चित कहते हैं निरन्तर || १८९ ||
जो तप अनादि संसार से समृद्ध कर्मों की महा अटवी को जला देने के लिए अग्नि की ज्वाला के समूह समान है, समतारूपी सुख से सम्पन्न है और मोक्षलक्ष्मी के लिए भेंटस्वरूप