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नियमसार
(हरिणी) वचनरचनां त्यक्त्वा भव्यःशुभाशुभलक्षणां सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फुटम् । परमयमिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं भवति नियम:शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम् ।।१९१।।
(मालिनी) अनवरतमखंडाद्वैतचिन्निर्विकारे
निखिलनयविलासोन स्फुरत्येव किंचित् । अपगत इह यस्मिन् भेदवादस्समस्त:
तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि ।।१९२।। आराधना का नाम ही सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है और आत्मा का ध्यान भी तो वीतरागभाव रूप है, चारित्ररूप है, चारित्रगुण की पर्याय है, स्वात्मा में ज्ञान की स्थिरतारूप है।
यहाँ प्रायश्चित्ताधिकार होने से ध्यान को ही निश्चयप्रायश्चित्त बताया जा रहा है और नियम की चर्चा भी उक्त संदर्भ में ही है। अत: जिसप्रकार आत्मध्यान निश्चयप्रायश्चित्त है; उसीप्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप नियम भी निश्चयप्रायश्चित्त है।।१२०||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज चार छन्द लिखते हैं; जिनमें पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह
(हरिगीत) जो भव्य भावें सहज सम्यक भाव से परमात्मा। ज्ञानात्मक उस परम संयमवंत को आनन्दमय || शिवसुन्दरी के सुक्ख का कारण परमपरमातमा।
के लक्ष्य से सद्भावमय शुधनियम होता नियम से||१९१|| जो भव्यजीव शुभाशुभवचनरचना को छोड़कर सदा स्फुटरूप से सहज परमात्मा को सम्यक् प्रकार से भाता है; उस ज्ञानात्मक परमसंयमी को मुक्ति सुन्दरी के सुख का कारणरूप यह शुद्धनियम नियम से होता है।
इस छन्द में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि जो भव्यजीव वचन विकल्पों से विरक्त हो निज भगवान आत्मा की आराधना करता है; उस परमसंयमी संत को मुक्ति प्राप्त करानेवाला शुद्धनियम अर्थात् निश्चयप्रायश्चित्त या ध्यान नियम से होता है।।१९१||
दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र