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नियमसार
(उपजाति) अध्यात्मशास्त्रामृतवारिराशेर्मयोद्धता संयमरत्नमाला।
बभूव या तत्त्वविदां सुकण्ठे सालंकृतिर्मुक्तिवधूधवानाम् ।।१८७।। संयमी जनों को आत्मज्ञान से क्रमश: आत्मोपलब्धि होती है। उस आत्मोपलब्धि ने ज्ञानज्योति द्वारा इन्द्रियसमूह के घोर अंधकार का नाश किया है और वह आत्मोपलब्धि कर्मवन से उत्पन्न भवरूपी दावानल की शिखाओं के समूह का नाश करने के लिए उस पर निरंतर समतारूपी जल की धारा को तेजी से छोड़ती है, बरसाती है।
उक्त छन्द का सार यह है कि निश्चयप्रायश्चित्त आत्मोपलब्धिरूप है और आत्मोपलब्धि त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और अनुभवरूप है।
यह आत्मोपलब्धि अर्थात् निश्चयप्रायश्चित्त पंचेन्द्रिय भोगों संबंधी घोर अंधकार का नाशक है और कर्मरूपी भयंकर जंगल में लगे हुए संसाररूपी दावानल की शिखाओं को शान्त करनेवाला है तथा उक्त दावानल अर्थात् भयंकर आग को बुझाने के लिए मूसलाधार बरसात है; क्योंकि जंगल में लगी आग को मूसलाधार बरसात के अलावा कौन बुझा सकता है ? तात्पर्य यह है कि निश्चयप्रायश्चित्तरूप आत्मोपलब्धि ही विषय-कषाय की आग को बुझा सकती है, अन्य कोई नहीं ।।१८६ ।। चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(भुजंगप्रयात) जिनशास्त्ररूपी अमृत उदधि से।
बाहर हुई संयम रत्नमाला || मुक्तिवधू वल्लभ तत्त्वज्ञानी।
के कण्ठ की वह शोभा बनी है।।१८७|| अध्यात्मशास्त्ररूपी अमृतसागर में से मेरे द्वारा जो संयमरूपी रत्नमाला निकाली गई है, वह रत्नमाला मुक्तिवधू के वल्लभ तत्त्वज्ञानियों के सुन्दर कण्ठ का आभूषण बनी है।
इस छन्द में आचार्यदेव कह रहे हैं कि अध्यात्मशास्त्रों के गंभीर अध्ययन से, उसमें प्रतिपादित भगवान आत्मा के स्वरूप को जानकर जो लोग उसमें ही अपनापन स्थापित करते हैं; वे तत्त्वज्ञानी जीव निश्चयरूप से परमसंयम को धारण कर मुक्ति को प्राप्त कर अनंतकाल तक अनंत अतीन्द्रिय आनन्द का उपभोग करते हैं।।१८७।।
पाँचवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न