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नियमसार
मिच्छत्तपहुदिभावा पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं । सम्मत्तपहुदिभावा अभाविया होंति जीवेण ।। ९० ।।
मिथ्यात्वप्रभृतिभावा: पूर्णं जीवेन भाविताः सुचिरम् । सम्यक्त्वप्रभृतिभावाः अभाविता भवन्ति जीवेन ।। ९० ।।
आसन्नानासन्नभव्यजीवपूर्वापरपरिणामस्वरूपोपन्यासोऽयम् । मिथ्यात्वाव्रतकषाययोग
प्रगटरूप सदा कल्याणस्वरूप परमात्मतत्त्व में ध्यानावली (ध्यान परंपरा-ध्यानपंक्ति) का होना भी शुद्धनय नहीं कहता; क्योंकि ध्यानावली आत्मा में है ह्र ऐसा तो हमेशा व्यवहार मार्ग में ही कहा जाता है।
हे जिनेन्द्रदेव ! आपके द्वारा कहा गया यह वस्तुस्वरूप अहो महा (बहुत बड़ा ) इन्द्रजाल जैसा ही लगता है। सम्यग्ज्ञान का आभूषण यह परमात्मतत्त्व समस्त विकल्पसमूहों से सर्वत: मुक्त है । सर्वनयसमूह संबंधी यह प्रपंच परमात्मतत्त्व में नहीं है तो फिर यह ध्यानावली इसमें किसप्रकार उत्पन्न हुई ? कृपा कर यह बताइये ।
इन छन्दों में यह कहा गया है कि जब ध्यान के ध्येयरूप परमात्मतत्त्व में ध्यानावली ह्र ध्यान की श्रेणी है ही नहीं ह्न ऐसा शुद्धनय कहता है; तब यह ध्यानावली उक्त परमात्मतत्त्व कैसे हो सकती है ?
यद्यपि यह सत्य है कि व्यवहारनय से ऐसा कहा जाता है कि ध्यानावली आत्मा में है; तथापि परमार्थ तो यही है कि ध्येयतत्त्व में ध्यानावली का होना संभव नहीं है ।। ११९ - १२० ।।
अब इस गाथा में यह कहते हैं कि इस जीव ने मिथ्यात्वादि भावों को तो अनादि से भाया है; पर सम्यक्त्वादि भावों को आजतक नहीं भाया । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत )
मिथ्यात्व आदिक भाव तो भाये सुचिर इस जीव ने ।
सम्यक्त्व आदिक भाव पर भाये नहीं इस जीव ने ||९० ॥
सम्यक्त्वादि
मिथ्यात्व आदि भाव तो इस जीव ने बहुत लम्बे काल से भाये हैं; परन्तु भावों को कभी नहीं भाया ।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यह आसन्नभव्य (निकटभव्य ) और अनासन्नभव्य (जिसका मोक्ष दूर है ऐसे भव्य) जीवों के पूर्वापर परिणामों के स्वरूप का कथन है ।
मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योगरूप परिणाम सामान्य प्रत्यय ( आस्रवभाव) हैं।