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निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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एगो य मरदि जीवो एगो य जीवदि सयं । एगस्स जादि मरणं एगो सिज्झदि णीरओ ।।१०१।।
एकश्च म्रियते जीव: एकश्च जीवति स्वयम् ।
एकस्य जायते मरणं एकः सिध्यति नीरजाः ।।१०१।। इह हि संसारावस्थायां मुक्तौ च निःसहायो जीव इत्युक्तः । नित्यमरणे तद्भवमरणे च सहायमन्तरेण व्यवहारतश्चैक एव म्रियते; सादिसनिधनमूर्तिविजातीयविभावव्यंजननरनारकादिपर्यायोत्पत्तौ चासन्नगतानुपचरितासदभूतव्यवहारनयादेशेन स्वयमेवोज्जीवत्येव । सर्वैर्बंधुभिः परिरक्ष्यमाणस्यापि महाबलपराक्रमस्यैकस्य जीवस्याप्रार्थितमपिस्वयमेव जायते मरणम्; एक एव परमगुरुप्रसादासादितस्वात्माश्रयनिश्चयशक्लध्यानबलेन स्वात्मानं ध्यात्वा नीरजाःसन् सद्यो निर्वाति। नयपक्षों से भलीभाँति परिचित आत्मानुभवी ज्ञानी जन उक्त भगवान आत्मा के स्वरूप से भलीभाँति परिचित हैं और इसकी आराधना में निरंतर संलग्न रहते हैं ।।१३६।।
अब आगामी गाथा में यह बताते हैं कि यह आत्मा संसार और मुक्त ह्न दोनों अवस्थाओं में असहाय ही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) अकेला ही मरे एवं जीव जन्मे अकेला|
मरण होता अकेले का मुक्त भी हो अकेला||१०१|| जीव अकेला मरता है और अकेला ही जन्मता है तथा अकेले का मरण होता है और रजरहित होता हआ अकेला सिद्धदशा को प्राप्त करता है।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यहाँ इस गाथा में ऐसा कहते हैं कि संसारावस्था में और मुक्ति में जीव निःसहाय है।
नित्यमरण में अर्थात् प्रतिसमय होनेवाले आयुकर्म के निषेकों के क्षय में और उस भव संबंधी मरण में अन्य किसी की सहायता बिना व्यवहार से अकेला ही मरता है।
सादि-सान्त मूर्तिक विजातीय विभावव्यंजनपर्यायरूप नर-नारकादि पर्यायों की उत्पत्ति में आसन्न अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय के कथन से जीव अकेला स्वयं ही जन्मता है। सर्व बन्धुजनों के द्वारा सुरक्षा किये जाने पर भी महाबल पराक्रमवाले जीव का अकेले ही, अनिच्छित होने पर भी स्वयमेव मरण होता है। अकेला ही परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त स्वात्माश्रित निश्चय शुक्लध्यान के बल से निज आत्मा को ध्याकर रजरहित होता हुआ शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त करता है।"