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परमालोचनाधिकार
लनिरावणनिरंजनपरमात्मानं त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिना यः परमश्रमणो नित्यमनुष्ठानसमये वचन रचनाप्रपंचपराङ्मुखः सन् ध्यायति, तस्य भावश्रमणस्य सततं निश्चयालोचना भवतीति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभि: ह्र
( आर्या ) मोहविलासविजृंभितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।। ५८ । उक्तं चोपासकाध्ययने ह्न
( आर्या )
आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ।। ५९ ।।
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संयुक्त; त्रिकाल निरावरण, निरंजन आत्मा को, तीन गुप्तियों से गुप्त परमसमाधि द्वारा जो परमश्रमण अनुष्ठानसमय में वचनरचना के प्रपंच (विस्तार) से पराङ्गमुख रहता हुआ नित्य ध्याता है; उस भावश्रमण को निरन्तर निश्चय आलोचना होती है ।"
इसप्रकार इस गाथा और इसकी टीका में यही कहा गया है कि औदारिकादि शरीररूप नोकर्म और ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्मों से तथा मतिज्ञानादि विभावगुण और नरनारकादि व्यंजनपर्यायों से भिन्न तथा स्वभावगुणपर्यायों से संयुक्त आत्मा को जो मुनिराज परमसमाधि द्वारा ध्याते हैं; उन मुनिराजों को निश्चय आलोचना होती है ॥१०७॥
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज ' तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभि: ह्न तथा आचार्य अमृतचन्द्र के द्वारा भी कहा गया है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
रोला ) मोहभाव से वर्तमान में कर्म किये जो ।
उन सबका आलोचन करके ही अब मैं तो ॥ वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥ ५८ ॥
मोह के विलास से फैले हुए इन उदयमान कर्मों की आलोचना करके अब मैं चैतन्यस्वरूप निष्कर्म आत्मा में आत्मा से ही वर्त रहा हूँ ।
इस कलश में यही कहा गया है कि मोहकर्म के उदय में होनेवाले भावकर्मों की आलोचना करके अब मैं स्वयं में अर्थात् स्वयं के शुद्ध-बुद्ध निरंजन निराकार आत्मा में ही वर्त रहा हूँ, लीन होता हूँ, लीन हूँ ॥ ५८ ॥
१. समयसार : आत्मख्याति, छन्द २२७
२. आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक १२५