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परमालोचनाधिकार
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(हरिणी) अभिनवमिदं पापं याया: समग्रधियोऽपि ये विदधति परं ब्रूमः किं ते तपस्विन एव हि । हृदि विलसितं शुद्धं ज्ञानं च पिंडमनुत्तमं
पदमिदमहो ज्ञात्वा भूयोऽपि यान्ति सरागताम् ।।१७५।। जो आत्मतत्त्व आत्मतत्त्व में मग्न मुनिराजों के हृदयकमल की केशर में आनन्द सहित विराजमान है, बाधा रहित है, विशुद्ध है, कामबाणों की गहन सेना को जला देने में दावाग्नि के समान है और जिसने शुद्ध ज्ञानरूप दीपक द्वारा मुनियों के मनरूपी घर के घोर अंधकार का नाश किया है; जो साधुओं द्वारा वंदनीय और जन्म-मरणरूपी भवसागर को पार करने में नाव के समान है; उस शुद्ध आत्मतत्त्व को मैं वंदन करता हूँ। ___ इसप्रकार आत्मतत्त्व की महिमा के प्रतिपादक इस छन्द में मुनिजनों के हृदयकमल में विराजमान उस आत्मतत्त्व को विशुद्ध और बाधारहित बताया गया है। कहा गया है कि वह आत्मतत्त्व कामबाणों की गहन सेना को जला देने में दावाग्नि के समान है। मुनियों के मन के अंधकार को नाश करनेवाला वह तत्त्व साधुजनों से भी वंदनीय है, अभिनन्दनीय है, संसार समद्र से पार होने के लिए नाव के समान है। टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि मैं भी उस शुद्ध आत्मतत्त्व की वंदना करता हूँ।।१७४।। पाँचवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(रोला) बुद्धिमान होने पर भी क्या कोई तपस्वी ।
ऐसा कह सकता कि करो तुम नये पापको। अरे खेद आश्चर्य शद्ध आतम को जाने।
फिर भी ऐसा कहे समझ के बाहर है यह ।।१७५|| हम पूछते हैं कि क्या वे वास्तव में तपस्वी हैं; जो समग्ररूप से बुद्धिमान होने पर भी दूसरों से यह कहते हैं कि तुम इस नये पाप को करो। आश्चर्य है, खेद है कि वे हृदय में विलसित शुद्धज्ञानरूप और सर्वोत्तम पिण्डरूप इस पद को जानते हुए भी सरागता को प्राप्त होते हैं। ___टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इस बात पर आश्चर्य ही व्यक्त कर रहे हैं, खेद प्रगट कर रहे हैं। हो सकता है कि उनके समय में कुछ ऐसे लोग रहे हों; जो इसप्रकार की अनर्गल बातें करते हों।