________________
शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
२९३
कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं । पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो।।११४।।
क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां निर्ग्रहणम्।
प्रायश्चित्तं भणितं निजगुणचिंता च निश्चयतः ।।११४।। ___ मुनिराजों के चित्त में निरंतर होनेवाला स्वात्मा का चिन्तवन ही प्रायश्चित्त है। निजसुख में रतिवाले वे मुनिराज उक्त प्रायश्चित्त के द्वारा पापों को धोकर मुक्ति प्राप्त करते हैं।
यदि मुनिराजों को अपने आत्मा के अतिरिक्त अन्य चिन्ता हो, अन्य पदार्थों का ही चिन्तवन हो; तो वे विमूढ, कामात एवं पापी मुनिराज पुन: पाप को उत्पन्न करते हैं ह्न इसमें क्या आश्चर्य है ?
इस छन्द में अत्यन्त सरल भाषा में यह बात ही कही गई है कि सन्तों के चित्त में निरन्तर होनेवाला आत्मचिंतन ही प्रायश्चित्त है और वे मुनिराज उक्त प्रायश्चित्त के बल पर पुण्यपापरूप विकारी भावों को धोकर मुक्ति प्राप्त करते हैं।
इससे विपरीत बात यह है कि मुनिपद धारण करके भी यदि कोई मुनिराज आत्मचिन्तन छोड़कर अन्य चिन्ताओं में ही उलझे रहे तो वे तत्त्व के संबंध में मूढ ही हैं, लौकिक वाच्छाओं से दुखी हैं; इसप्रकार एक तरह से पुण्य-पापरूप विकारों में लिप्त होने से पाप का ही बंध करते हैं; अत: संसार में ही भटकेंगे, उन्हें मुक्ति की प्राप्ति होना संभव नहीं है। यदि ऐसा होता है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
यहाँ चित्त में एक बात आती है कि भले ही कुछ भी क्यों न हो, पर मुनिराजों के लिए विमूढ, कामात और पापी कहना कुछ ठीक नहीं लगता; पर क्या करें, मूल छन्द में ही उक्त शब्दों का प्रयोग किया गया है। अत: अनुवाद करनेवाले इसमें क्या कर सकते हैं ?
हमारा कहना तो यही है कि मूल बात तो यही है कि जो लोग आत्मचिन्तन छोड़कर पर की चिन्ता में मग्न रहते हैं, वे मुक्तिमार्ग से च्युत हैं; उन्हें मुक्ति की प्राप्ति संभव नहीं है ।।१८०।।
विगत गाथा में निश्चय प्रायश्चित्त की चर्चा करके अब इस गाथा में उसी बात को आगे बढ़ाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) प्रायश्चित्त क्रोधादि के क्षय आदि की सद्भावना।
अर निजगुणों का चिन्तवन यह नियतनय का है कथन ||११४|| क्रोध आदि स्वकीय विकारी भावों के क्षयादिक की भावना में रहना और निजगुणों का चिन्तवन करते रहना ही निश्चय से प्रायश्चित्त कहा गया है।