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नियमसार
( अनुष्टुभ् ) भेयं मायामहागन्मिथ्याघनतमोमयात् । यस्मिन् लीना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमाहयः ।।६२।।
(हरिणी) वनचरभयाद्धावन दैवाल्लताकुलवालधि: किल जडतया लोलोवालव्रजेऽविचलं स्थितः। बत स चमरस्तेन प्राणैरपि प्रवियोजितः
परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः ।।६३॥ उक्त छन्द में बाहुबली मुनिराज के उदाहरण के माध्यम से यह सिद्ध किया गया है कि थोड़ा-सा भी मान चिरकाल तक दुःख भोगने को बाध्य कर देता है।।६१|| माया कषाय से होनेवाले दोषों का निरूपक तीसरे छंद का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(वीर) अरे देखना सहज नहीं क्रोधादि भयंकर सांपों को। क्योंकि वे सब छिपे हुए हैं मायारूपी गौं में।। मिथ्यातम है घोर भयंकर डरते रहना ही समचित ।
यह सब माया की महिमा है बचके रहना ही समुचित ||६२|| जिस मायारूपी गड्ढे में छिपे क्रोधादि भयंकर सांपों को देखना सहज नहीं है; मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकारवाले उस मायारूपी महान गड्ढे से डरते रहना योग्य है।
इस छन्द में माया कषाय को मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकारवाला गड्ढा (गत) बताया गया है और साथ में यह भी कहा गया है कि उस मायारूपी गड्ढे में क्रोधादि कषायरूपी भयंकर विषैले सांप छुपेरहते हैं। वह माया क्रोधादिक कषायोंरूपी सांपों का घर है; अत: माया कषाय से सावधान रहना अत्यन्त आवश्यक है।।६२।। लोभ कषाय के दोषों का निरूपक चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(वीर) वनचर भय से भाग रही पर उलझी पूँछ लताओं में। दैवयोग से चमर गाय वह मुग्ध पूँछ के बालों में ।। खड़ी रही वह वहीं मार डाला वनचर ने उसे वहीं। इसप्रकार की विकट विपत्ति मिलती सभी लोभियों को||६३||
१. गुणभद्रस्वामी : आत्मानुशासन, छन्द २२१
२. वही, छन्द २२३