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शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
(वसंततिलका) चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुच्येत् । क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय
मानो मनागपि हतिं महती करोति ।। ६१॥
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कामवासना अपने चित्त में विद्यमान होने पर भी अपनी जड़बुद्धि के कारण उसे न पहिचान कर शंकर ने क्रुद्ध होकर बाह्य में किसी व्यक्ति को कामदेव समझ कर जला दिया और हृदय में स्थित कामवासना से विह्वल हो उठे। इसीलिए कहा है कि क्रोध के उदय से किसे कार्यहानि नहीं होती ? तात्पर्य यह है कि क्रोधियों के काम तो बिगड़ते ही हैं।
उक्त छन्द में क्रोध कषाय से होनेवाली हानि की चर्चा करके क्रोध न करने की प्रेरणा दी गई है। अपनी बात को बल प्रदान करने के लिए महादेव द्वारा कामदेव को जलाने संबंधी लोकप्रसिद्ध घटना का उदाहरण दिया गया है ।
लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि कामदेव की कुचेष्टा से क्रोधित होकर शंकर महादेव ने अपने माथे पर तीसरा नेत्र खोलकर उससे निकली हुई भयंकर ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया था। ऐसा होने पर भी उसके बाद महादेव को कामभाव से विह्वल होते देखा गया । अत: यहाँ यह कहा जा रहा है कि जब स्वयं कामभाव से पीड़ित रहे तो फिर काम को जलाने से क्या लाभ हुआ ? क्रोधित होने का क्या परिणाम हुआ ?
अरे भाई क्रोध से तो सभी की हानि ही होती है, लाभ नहीं ॥६०॥
मान कषाय से होनेवाले दोषों का निरूपक दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र
(वीर)
अरे हस्तगत चक्ररत्न को बाहुबली ने त्याग दिया । यदि न होता मान उन्हें तो मुक्तिरमा तत्क्षण वरते ॥ किन्तु मान के कारण ही वे एक बरस तक खड़े रहे ।
इससे होता सिद्ध तनिक सा मान अपरिमित दुख देता । ६१ ।।
अपने दाहिने हाथ में समागत चक्र को छोड़कर जब बाहुबली ने दीक्षा ली थी, यदि
मान कषाय नहीं होती तो वे उसी समय मुक्ति प्राप्त कर लेते; किन्तु वे मान कषाय के कारण चिरकाल तक क्लेश को प्राप्त हुए। इससे सिद्ध होता है कि थोड़ा भी मान बहुत हानि करता है ।
१. गुणभद्रस्वामी : आत्मानुशासन, छन्द २१७