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शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
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तथा हि ह्न
(आर्या) क्षमया क्रोधकषायं मानकषायं च मार्दवेनैव ।
मायामार्जवलाभाल्लोभकषायं च शौचतो जयतु ।।१८२।। वन में रहनेवाले शिकारी भील आदि मनुष्य और शेर आदि मांसाहारी पशुओं के भय से भागती हुई गाय की पूंछ दुर्भाग्य से कांटोंवाली लता में उलझ जाने पर जड़ता के कारण बालों के गुच्छे के प्रति लोभ के वश वह गाय वहीं खड़ी रह गई और अरे रे उस गाय को वनचर द्वारा मार डाला गया। तात्पर्य यह है कि बालों के गुच्छे के लोभ में गाय ने प्राण गंवा दिये। जो लोग लोभ, लालच और तृष्णा के वश हैं, उनकी ऐसी ही दुर्दशा होती है, उन पर ऐसी ही विपत्तियाँ आती रहती हैं।।
वन में रहनेवाली नील गायों में कुछ गायों की पूँछ चँवरों जैसी होती है, उनकी पूँछ में सुन्दरतम बालों के गुच्छे होते हैं। बालों के उन गुच्छों से चँवर बनाये जाते हैं। इसीकारण उन गायों को चमरी गाय कहा जाता है।
मांसाहारी जंगली जानवर और भील आदि शिकारी उनके पीछे पड़े रहते हैं। वे बेचारी उनके भय से आकुल-व्याकुल होकर यहाँ-वहाँ भागती रहती हैं। ऐसी ही एक गाय, जिसके पीछे वनचर शिकारी लगे हुए थे; जान बचाकर भाग रही थी। उसकी पूँछ के बाल किसी झाड़ी में उलझ गये। यदि वह चाहती तो उन बालों की परवाह किये बिना भाग सकती थी; किन्तु अपने सुन्दरतम बालों के मोह में वह वहीं खड़ी रही और शिकारियों की शिकार हो गई।
वनवासी सन्तों को ऐसी घटनायें देखने को प्राय: प्रतिदिन मिलती रहती हैं। अत: आचार्यदेव ने उक्त घटना के माध्यम से लोभ कषाय की दुखमयता को स्पष्ट किया है। उनका कहना यह है कि यह बात किसी एक गाय की नहीं है। सभी लोभियों की प्रायः ऐसी ही दुर्दशा होती है। अत: लोभ कषाय जितनी जल्दी छोड़ दी जावे, उतना ही अच्छा है।
इसप्रकार यहाँ टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव ने आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन में समागत चार कषायों की निरर्थकता बतानेवाले छन्दों में से चार कषाय संबंधी चार छन्द प्रस्तुत कर दिये हैं; जो अत्यन्त उपयोगी और प्रसंगानुरूप हैं।।६३||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथाहि लिखकर एक छन्द स्वयं भी लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(सोरठा) क्षमाभाव से क्रोध, मान मार्दव भाव से। जीतो माया-लोभ आर्जव एवं शौच से ||१८२।।