________________
२९६
नियमसार
वसंततिलजाबद्धया
तथा चोक्तं श्री गुणभद्रस्वामिभिः ह्न
(वसंततिलका) चित्तस्थमप्यनवबुद्ध्य हरेण जाड्यात्
क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनंगबुद्ध्या। घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां
क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ।।६०।। उक्त गाथा की टीका में टीकाकार मुनिराज क्षमा को तीन रूपों में प्रस्तुत करते हैं ह्न जघन्य, मध्यम और उत्तम । यद्यपि उक्त तीनों प्रकार की क्षमा सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों में ही पाई जाती है; तथापि उनमें जो अन्तर स्पष्ट किया गया है; उस पर जब ध्यान देते हैं तो यह बात स्पष्ट होती है कि यह अन्तर मात्र इस बात का है कि किन परिस्थितियों में किस प्रकार के चिन्तन से उक्त क्षमाभाव प्रगट हुआ है।
जब कोई अज्ञानी किसी ज्ञानी को अकारण त्रास देने लगता है तो ज्ञानी सोचता है कि यह त्रास तो मेरे पुण्योदय से दूर हुआ है या होगा। इसप्रकार के चिन्तन के आधार पर जो क्षमा भाव प्रगट होता है; वह जघन्य उत्तमक्षमा है। इसीप्रकार जब वह त्रास अकारण ही ताड़न-मारन की सीमा तक पहुँच जाता है, तब भी जब ज्ञानी उसीप्रकार के चिन्तन से शान्त रहता है, क्षमाभाव धारण किये रहता है तो वह क्षमा मध्यम क्षमा है।
किन्तु जब उसीप्रकार की परिस्थितियों में वह यह सोचता है कि जान से मार देने पर भी परमब्रह्मस्वरूप अमूर्त आत्मा की अर्थात् मेरी कोई हानि नहीं होती। जो ज्ञानी इसप्रकार के चिन्तन के आधार पर समताभाव बनाये रखता है, समरसी भाव में स्थित रहता है; तब उस ज्ञानी के उत्तम क्षमा होती है।।११५||
इसके बाद तथा चोक्तं श्री गुणभद्रस्वामिभिः ह्न तथा श्री गुणभद्र स्वामी द्वारा भी कहा गया है' ह्न ऐसा लिखकर चारों कषायों के परिणाम संबंधी आत्मानुशासन ग्रंथ के चार छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिनमें क्रोध से उत्पन्न होनेवाली हानि को प्रदर्शित करनेवाले पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(रोला) अरे हृदय में कामभाव के होने पर भी।
__ क्रोधित होकर किसी पुरुष को काम समझकर। जला दिया हो महादेव ने फिर भी विह्वल |
क्रोधभाव से नहीं हुई है किसकी हानि ?||६०|| १. गुणभद्रस्वामी : आत्मानुशासन, छन्द २१६