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शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त अधिकार
(गाथा ११३ से गाथा १२७ तक) अथाखिलद्रव्यभावनोकर्मसंन्यासहेतुभूतशुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः कथ्यते ।
वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो। सो हवदि पायछित्तं अणवरयं चेव कायव्वो ॥११३।। व्रतसमितिशीलसंयमपरिणाम: करणनिग्रहो भावः।।
स भवति प्रायश्चित्तम् अनवरतं चैव कर्त्तव्यः ।।११३।। निश्चयप्रायश्चित्तस्वरूपाख्यानमेतत् । पंचमहाव्रतपंचसमितिशीलसकलेन्द्रिय वाङ्मन:कायसंयमपरिणाम: पंचेन्द्रियनिरोधश्च स खलु परिणतिविशेषः, प्राय: प्राचुर्येण निर्विकारं
विगत सात अधिकारों में क्रमश: जीव, अजीव, शुद्धभाव, व्यवहारचारित्र, परमार्थप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान और परम-आलोचना की चर्चा हुई। अब इस आठवें
अधिकार में शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त की चर्चा करते हैं। __इस अधिकार की पहली और नियमसार की ११३वीं गाथा की उत्थानिका लिखते हुए तात्पर्यवृत्ति टीका में लिखते हैं ह्र
“अब समस्त द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्म के संन्यास के हेतुभूत शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त अधिकार कहा जाता है।" गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) जो शील संयम व्रत समिति अर करण निग्रहभाव हैं।
सतत् करने योग्य वे सब भाव ही प्रायश्चित्त हैं।११३|| व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणाम तथा इन्द्रियनिग्रहरूप भाव प्रायश्चित्त है और वह प्रायश्चित्त निरंतर कर्तव्य है, करने योग्य कार्य है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
"यह निश्चयप्रायश्चित्त के स्वरूप का कथन है। पाँच महाव्रत, पाँच समिति, शील और सभी इन्द्रियों के तथा मन-वचन-काय के संयमरूप परिणाम एवं पंचेन्द्रिय के निरोधरूप परिणति विशेष प्रायश्चित्त है। प्रायः प्रचुररूप से निर्विकार चित्त ही प्रायश्चित्त है।