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नियमसार
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमालोचनाधिकारः सप्तमः श्रुतस्कन्धः ।
जिसने जन्म - जरा-मृत्यु के समूह को जीत लिया है, दारुण राग के समूह का हनन कर दिया है, जो पापरूपी महान्धकार के समूह को नाश करने के लिए सूर्य के समान हैं और परमात्मपद में स्थित हैं; वे जिनेन्द्र जयवंत हैं ।
उक्त दोनों छन्दों में से प्रथम छन्द में जिनेन्द्र भगवान की उपमा चन्द्रमा और सूर्य से दी कहा गया है कि भगवन् ! आप शान्त रसरूपी अमृत के सागर को उल्लसित करने के लिए चन्द्रमा के समान हो और मोहान्धकार के नाश के लिए ज्ञानरूपी सूर्य हो । दूसरे छंद में कहा गया है कि जन्म, जरा और मृत्यु को जीतनेवाले, भयंकर रागद्वेष के नाशक, पापरूपी अंधकार के नाशक सूर्य और परमपद में स्थित जिनेन्द्रदेव जयवंत हैं ।। १७८-१७९।। परमालोचनाधिकार की समाप्ति के अवसर पर टीकाकार जो पंक्ति लिखते हैं; उसका भाव इसप्रकार है
" इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परमालोचनाधिकार नामक सातवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।"
यहाँ नियमसार एवं उसकी तात्पर्यवृत्ति टीका के साथ-साथ डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका में परमालोचनाधिकार नामक सातवाँ श्रुतस्कन्ध भी समाप्त होता है ।
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एक ही भूमिका के ज्ञानियों के संयोगों और संयोगीभावों में महान अंतर हो सकता है । कहाँ क्षायिक सम्यग्दृष्टि सौधर्म इन्द्र और कहाँ सर्वार्थसिद्धि के क्षायिक सम्यग्दृष्टि अहमिन्द्र । सौधर्म इन्द्र तो जन्मकल्याणक में आकर नाभिराय के दरबार में ताण्डव नृत्य करता है और सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र दीक्षाकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और मोक्षकल्याणक में भी नहीं आते, दिव्यध्वनि सुनने तक नहीं आते।
संयोग और संयोगीभावों में महान् अन्तर होने पर भी दोनों की भूमिका एक ही हैं, एक सी ही है। अतः संयोगीभावों के आधार पर राग या वैराग्य का निर्णय करना उचित नहीं है, ज्ञानी - अज्ञानी का निर्णय भी संयोग और संयोगीभावों के आधार पर नहीं किया जा सकता।
ह्न पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ-३९