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परमालोचनाधिकार
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आलोयणमालुंछण वियडीकरणं च भावसुद्धी य। चउविहमिह परिकहियं आलोयणलक्खणं समए ।।१०८।।
आलोचनमालुंछनमविकृतिकरणं च भावशुद्धिच ।
चतुर्विधमिह परिकथितं आलोचनलक्षणं समये ।।१०८।। आलोचनालक्षणभेदकथनमेतत् । भगवदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतसकलजनताश्रुतिसुभगसुन्दरानन्दनिष्यन्द्यनक्षरात्मकदिव्यध्वनिपरिज्ञानकुशलचतुर्थज्ञानधरगौतममहर्षिमुखकमलविनिर्गतचतुरसन्दर्भगर्भीकृतराद्धान्तादिसमस्तशास्त्रार्थसार्थसारसर्वस्वीभूतशुद्धनिश्चयपरमालोचनायाश्चत्वारो विकल्पा भवन्ति । ते वक्ष्यमाणसूत्रचतुष्टये निगद्यन्त इति । (जड़) हैं और शुद्धात्मा के आश्रयरूप शुद्धभाव मोक्ष का मूल है। इसलिए अब मैं शुद्धभावरूप आत्मा का आश्रय लेकर कर्मों का नाशकर केवलज्ञानरूप लक्ष्मी को प्राप्त करूँगा ।।१५२।।
अब आगामी गाथा में आलोचना के स्वरूप के भेदों की चर्चा करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत) आलोचनं आलुंछनं अर भावशुद्धि अविकृतिकरण।
आलोचना के चार लक्षण भेद आगम में कहे ।।१०८।। आलोचन, आलुंछन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि ह्न ऐसे चार प्रकार आलोचना के लक्षण शास्त्रों में कहे गये हैं।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
“यह आलोचना के लक्षण के भेदों का कथन है। अरहंत भगवान के मुखारविन्द से निकली हुई, सभी जनसमूह के सौभाग्य का कारणभूत, सुन्दर आनन्दमयी अनक्षरात्मक दिव्यध्वनि को समझने में कुशल मन:पर्ययज्ञानधारी गौतम महर्षि के मुखकमल से निकली हुई जो चतुर वचन रचना, उसके भीतर विद्यमान समस्त (सिद्धान्तादि) शास्त्रों के अर्थसमूह के सार सर्वस्वरूप शुद्ध निश्चय परम आलोचना के चार भेद हैं; जो आगे कहे जानेवाले चार सूत्रों (गाथाओं) में कहे जायेंगे।"
इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि आगम में आलोचना के चार भेद बताये गये हैं; जो इसप्रकार हैं ह्र आलोचन, आलुछन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि । इन चारों के स्वरूप को आगामी चार गाथाओं के माध्यम से आचार्य कुन्दकुन्ददेव स्वयं ही स्पष्ट कर रहे हैं । अत: उनके बारे में यहाँ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है ।।१०८।।