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नियमसार
(वसंततिलका) निर्मुक्तसंगनिकरं परमात्मतत्त्वं
निर्मोहरूपमनघं परभावमुक्तम् । संभावयाम्यहमिदं प्रणमामि नित्यं
निर्वाण-योषिद-तनद्भवसंमदाय ॥१५८॥ चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) श्रीपरमगुरुओं की कृपा से भव्यजन इस लोक में| निज सुख सुधासागर निमज्जित आतमा को जानकर|| नित प्राप्त करते सहजसुख निर्भेद दृष्टिवंत हो।
उस अपूरब तत्त्व को मैं भा रहा अति प्रीति से||१५७|| निजात्मा के आश्रय से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के सागर में डुबकी लगाते हए इस शुद्धात्मा को जानकर भव्यजीव परमगुरु के सहयोग से शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं; इसलिए भेद के अभाव की दृष्टि से जो सिद्धि से उत्पन्न सुख से शुद्ध है ह ऐसे सहज तत्त्व को मैं भी अत्यपूर्व रीति से अत्यन्त भाता हूँ।
इस छन्द में सहजतत्त्व अर्थात् निज शुद्धात्मा की भावना भाई गई है। कहा गया है कि आनन्द के कन्द, ज्ञान के घनपिण्ड निज शुद्धात्मा के ज्ञान, श्रद्धान एवं अनुष्ठान से अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है; इसलिए मैं उक्त सहजतत्त्व की अनुभूति करने की भावना भाता हूँ, कामना करता हूँ।।१५७।। पाँचवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) सब ग्रन्थ से निर्ग्रन्थ शुध परभावदल से मुक्त है। निर्मोह है निष्पाप है वह परम आतमतत्त्व है।। निर्वाणवनिताजन्यसुख को प्राप्त करने के लिए।
उस तत्त्व को करता नमन नित भावना भी उसी की||१५८|| सभी प्रकार के परिग्रहों से मुक्त, निर्मोहरूप, पापों से रहित और परभावों से मुक्त परमात्मतत्त्व को; मुक्तिरूपी स्त्री से उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रियसुख की प्राप्ति के लिए नित्य नमन करता हूँ, सम्भावना करता हूँ, सम्यक्रूप से भाता हूँ।
इस छन्द में मुक्ति प्राप्त करने की भावना से परमात्मतत्त्व की संभावना की गई है, उसे