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परमालोचनाधिकार
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(वसंततिलका) संसारघोरसहजादिभिरेव रौद्रै
दुःखादिभिः प्रतिदिनं परितप्यमाने। लोके शमामृतमयीमिह तां हिमानीं
यायादयं मुनिपति: समताप्रसादात् ।।१६४।। उसीप्रकार यह भगवान आत्मा स्वयं में ही जो शम-दम आदि गुणरूपी कमलनी हैं; उनके साथ क्रीड़ा करता है। यहाँ आत्मा के द्रव्यस्वभाव को सरोवर, उसमें रहनेवाले गुणों को कमलनी और वर्तमान निर्मल पर्याय को राजहंस के स्थान पर रखा गया है। तात्पर्य यह है कि निर्मल पर्याय के धनी ज्ञानीजन अपने आत्मा में विद्यमान गुणों के साथ ही केलि किया करते हैं। उन्हें बाहर निकलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
यहाँ मैं आपका ध्यान एक बात की ओर विशेष खींचना चाहता हूँ कि यहाँ 'शमदमगुणाम्भोजनी' पद है, जिसका अर्थ शम-दम गुणरूपी कमलनी ही हो सकता है, कमल नहीं। हंस का कमल के साथ क्रीड़ा करने के स्थान पर कमलनी के साथ क्रीड़ा की बात ही अधिक उपयुक्त लगती है। पहले छन्द में बाहर निकलने की आवश्यकता नहीं पड़ती; क्योंकि अतीन्द्रिय आनन्द की सभी सामग्री अन्दर विद्यमान है ह्न यह कहा है और दूसरे छन्द में स्वयं स्वयं में ही प्रकाशित होता रहता है ह्न यह कहा है। तात्पर्य यह है कि उसे प्रकाशित होने के लिए भी पर की आवश्यकता नहीं है।
इसप्रकार यह भगवान आत्मा स्वयं में ही परिपूर्ण है, उसे अन्य की कोई आवश्यकता नहीं।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि जब आपने कमलनी अर्थ किया ही है तो फिर इस स्पष्टीकरण की क्या आवश्यकता है ? __अरे भाई ! अबतक शमदमगुणाम्भोजनी का अर्थ शम-दमगुणरूपी कमल किया जाता रहा है। अम्भोज का अर्थ होता है कमल । जिसकी उत्पत्ति अंभ माने जल में हो, वह अम्भोज । अम्भोज का स्त्री लिंग अम्भोजनी हुआ। इसप्रकार अम्भोजनी का अर्थ कमलनी होता है ।।१६२-१६३।। तीसरे और चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(रोला) अरे सहज ही घोर दुःख संसार घोर में।
प्रतिदिन तपते जीव अनंते घोर दुःखों से|| किन्तु मुनिजन तो नित समता के प्रसाद से।
अरे शमामृत हिम की शीतलता पाते हैं।।१६४||