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परमालोचनाधिकार
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मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दुभावसुद्धि त्ति । परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं ।।११२।।
मदमानमायालोभविवर्जितभावस्तु भावशुद्धिरिति ।
परिकथितो भव्यानां लोकालोकप्रदर्शिभिः ।।११२।। भावशुद्धयभिधानपरमालोचनास्वरूपप्रतिपादनद्वारेण शुद्धनिश्चयालोचनाधिकारोपसंहारोपन्यासोऽयम् । तीव्रचारित्रमोहोदयबलेन पुंवेदाभिधाननोकषायविलासो मदः । अत्र मदशब्देन मदन: कामपरिणामः इत्यर्थः । चतुरसंदर्भगर्भीकृतवैदर्भकवित्वेन आदेयनामकर्मोदये सति सकलजनपूज्यतया, मातृपितृसम्बन्धकुलजातिविशुद्ध्या वा, शतसहस्रकोटिअभाव करने के लिए शुद्धात्मा की आराधना करता हूँ, उसकी भावना भाता हूँ, उसका ध्यान करता हूँ। दूसरे छन्द में कहा गया है कि यद्यपि यह भगवान आत्मा वाणी की पकड़ में नहीं आता; तथापि गुरूपदेश से आत्मज्योति को प्राप्त करनेवाला मुक्तिरमा का वरण करता है। इसीप्रकार तीसरे छन्द में रागान्धकार का नाशक, मुनिजनों के मन का वासी, परमसुख के सागर आत्मा के जयवंत होने की भावना भाई है।।१६८-१७०||
विगत गाथाओं में परम-आलोचना के आलोचन, आलुंछन और अविकृतिकरण ह्न इन भेदों की चर्चा की गई है; अब इस गाथा में चौथा भेद भावशुद्धि की चर्चा करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) मदमानमायालोभ विरहित भाव को जिनमार्ग में।
भावशुद्धि कहा लोक-अलोकदर्शी देव ने||११२।। मद, मान, माया और लोभ रहित भाव भावशद्धि है त ऐसा भव्यों से लोकालोक को देखनेवालों ने कहा है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
“यह भावशुद्धि नामक परम-आलोचना के स्वरूप द्वारा शुद्ध-निश्चय आलोचना अधिकार के उपसंहार का कथन है।
तीव्र चारित्रमोह के उदय के कारण पुरुषवेद नामक नोकषाय का विलास मद है। यहाँ मद का अर्थ मदन अर्थात् कामविलास है।
वैदर्भी रीति में किये गये चतुरवचनरचनावाले कवित्व के कारण, आदेय नामक नामकर्म का उदय होने पर समस्त जनों द्वारा पूज्यत्वपने से; माता-पिता संबंधी कुल-जाति की विशुद्धि