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परमालोचनाधिकार
वसंततिलका)
त्यक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि । नित्यं
संसारसागरसमुत्तरणाय
निर्मुक्तिमार्गमपि नौम्यविभेदमुक्तम् ।।१५९।।
कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो । साहीणो समभावो आलुंछणमिदि समुद्दिट्ठ ।। ११० ।।
नमन किया गया है। कहा गया है कि अंतरंग और बहिरंग ह्न सभी २४ परिग्रहों से मुक्त, पापभावों से रहित, परभावों से भिन्न, निर्मोही परमात्मतत्त्व को; शिवरमणी के रमण से प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रिय आनन्द की भावना से नमन करता हूँ और उनकी भली प्रकार संभावना करता हूँ।।१५८।।
छठवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
भिन्न जो निजभाव से उन विभावों को छोड़कर । मैं करूँ नित चिन्मात्र निर्मल आतमा की भावना |
कर जोड़कर मैं नमन करता मुक्ति मारग को सदा ।
इस दुखमयी भव- उदधि से बस पार पाने के लिए || १५९||
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निजभाव से भिन्न सभीप्रकार के विभाव भावों को छोड़कर एक निर्मल चिन्मात्र भाव को भाता हूँ । संसार सागर से पार उतरने के लिए जिनागम में भेद से रहित कहे गये मुक्तिमार्ग को भी मैं नित्य नमन करता हूँ ।
इस छन्द में निजभावरूप चिन्मात्रभाव की भावनापूर्वक मुक्तिमार्ग को नमन किया गया है। कहा गया है कि मैं निजभाव से भिन्न सभीप्रकार के विभावभावों से रहित निर्मल चिन्मात्रभाव की भावना भाता हूँ और संसारसागर से पार उतरने के लिए अभेदरूप मुक्तिमार्ग को बारंबार नमन करता हूँ ।। १५९॥
विगत गाथा में परम-आलोचना के प्रथम भेद आलोचन की चर्चा की गई और अब इस गाथा में परम-आलोचना के दूसरे भेद आलुंछन की चर्चा करते हैं।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
कर्मतरु का मूल छेदक जीव का परिणाम जो । समभाव है बस इसलिए ही उसे आलुंछन कहा ||११०||