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नियमसार
(इन्द्रवज्रा) आलोचनाभेदममुं विदित्वा मुक्त्यंगनासंगमहेतुभूतम् । स्वात्मस्थितिं याति हि भव्यजीवः तस्मै नमः स्वात्मनि निष्ठिताय ।।१५३।।
जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणाम। आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं ।।१०९।।
यः पश्यत्यात्मानं समभावे संस्थाप्य परिणामम् ।
आलोचनमिति जानीहि परमजिनेन्द्रस्योपदेशम् ।।१०९।। इहालोचनास्वीकारमात्रेण परमसमताभावनोक्ता । यःसहजवैराग्यसुधासिन्धुनाथडिंडीरपिंडपरिपांडुरमंडनमंडलीप्रवृद्धिहेतुभूतराकानिशीथिनीनाथः सदान्तर्मुखाकारमत्यपूर्वं निरंजनइसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) मुक्तिरूपी अंगना के समागम के हेतु जो। भेद हैं आलोचना के उन्हें जो भवि जानकर।। निज आतमा में लीन हो नित आत्मनिष्ठित ही रहें।
हो नमन बारंबार उनको जो सदा निजरत रहें।।१५३|| मुक्तिरूपी अंगना (रमणी) के संगम के हेतुभूत आलोचना के इन चार भेदों को जानकर जो भव्यजीव निज आत्मा में स्थिति को प्राप्त करता है; उस स्वात्मा में लीन भव्यजीव को नमस्कार हो।
इसप्रकार इस छन्द में तो मात्र उन भावलिंगी मुनिराजों को नमस्कार किया गया है; जो भगवान आत्मा के आश्रय से मुक्ति के कारणरूप आलोचना के इन चार भेदों को जानकर समभावपूर्वक निज आत्मा में स्थापित होते हैं ।।१५३|| अब आलोचना का स्वरूप कहते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) उपदेश यह जिनदेव का परिणाम को समभाव में।
स्थाप कर निज आतमा को देखना आलोचनम् ।।१०९|| जो जीव परिणामों को समभाव में स्थापित कर निज आत्मा को देखता है; वह आलोचन है तू ऐसा जिनदेव का उपदेश जानो। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ आलोचना के स्वीकारमात्र से परमसमताभावना कही गई है। सहज वैराग्यरूपी अमृतसागर के फेनसमूह के सफेद शोभामंडल की वृद्धि के हेतुभूत पूर्णमासी के चन्द्रमा