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नियमसार
(पृथ्वी) क्वचिल्लसति निर्मलं क्वचन निर्मलानिर्मलं क्वचित्पुनरनिर्मलं गहनमेवमज्ञस्य यत् । तदेव निजबोधदीपनिहताघभूछायकं
सतां हृदयपद्मसद्मनि च संस्थितं निश्चलम् ।।१३६ ।। उसी को दुहराया गया है। अन्त में कहा गया है कि मुक्ति प्राप्त करने के लिए एक भगवान आत्मा ही एकमात्र आधार है; अन्य कोई पदार्थ नहीं। नहीं है, नहीं है; दो बार लिखकर अपनी दृढ़ता को प्रदर्शित किया है। साथ में जगत को भी चेताया है कि यहाँ-वहाँ भटकने से क्या होगा, एकमात्र निज भगवान आत्मा की शरण में आओ, उसमें अपनापन स्थापित करो; उसे ही निजरूप जानो, उसमें ही जम जावो, रम जावो ।।१३५।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(भुजंगप्रयात) किया नष्ट जिसने है अघतिमिर को,
रहता सदा सत्पुरुष के हृदय में| कभी विज्ञजन को निर्मल अनिर्मल,
निर्मल-अनिर्मल देता दिखाई। जो नष्ट करता है अघ तिमिर को,
वह ज्ञानदीपक भगवान आतम। अज्ञानियों के लिए तो गहन है,
पर ज्ञानियों को देता दिखाई||१३६ ।। जिसने पापतिमिर को नष्ट किया है और जो सत्पुरुषों के हृदयकमलरूपी घर में स्थित है; वह निजज्ञानरूपी दीपक अर्थात् भगवान आत्मा कभी निर्मल दिखाई देता है, कभी अनिर्मल दिखाई देता है और कभी निर्मलानिर्मल दिखाई देता है । इसकारण अज्ञानियों के लिए गहन है।
इस कलश में यह बताया गया है कि परमशद्धनिश्चयनय या परमभावग्राही शद्धद्रव्यार्थिकनय से यह भगवान आत्मा एकाकार अर्थात् अत्यन्त निर्मल ही है और व्यवहारनय या पर्यायार्थिकनय से यह आत्मा अनेकाकार अर्थात् मलिन ही है। प्रमाण की अपेक्षा एकाकार भी है और अनेकाकार भी है, निर्मल भी है और मलिन भी है। उक्त नय कथनों से अपरिचित अज्ञानी जनों को अनेकान्तस्वभावी आत्मा का स्वरूप ख्याल में ही नहीं है; पर