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निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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कषायस्य दान्तस्य शूरस्य व्यवसायिनः । संसारभयभीतस्य प्रत्याख्यानं सुखं भवेत् ।। १०५ ।।
निश्चयप्रत्याख्यानयोग्यजीवस्वरूपाख्यानमेतत् । सकलकषायकलंकपंकविमुक्तस्य निखिलेन्द्रियव्यापारविजयोपार्जितपरमदान्तरूपस्य अखिलपरीषहमहाभटविजयोपार्जितनिजशूरगुणस्य निश्चयपरमतपश्चरणनिरतशुद्धभावस्य संसारदुःखभीतस्य व्यवहारेण चतुराहारविवर्जनप्रत्याख्यानम् । किं च पुनः व्यवहारप्रत्याख्यानं कुदृष्टेरपि पुरुषस्य चारित्रमोहोदयहेतुभूतद्रव्यभावकर्मक्षयोपशमेन क्वचित् कदाचित् संभवति । अत एव निश्चयप्रत्याख्यानं हितम् अत्यासन्नभव्यजीवानाम्; यतः स्वर्णनामधेयधरस्य पाषाणस्योपादेयत्वं न तथांधपाषाणस्येति । तत: संसारशरीरभोगनिर्वेगता निश्चयप्रत्याख्यानस्य कारणं, पुनर्भाविकाले संभाविनां निखिलमोहरागद्वेषादिविविधविभावानां परिहार: परमार्थप्रत्याख्यानम्, अथवानागतकालोद्भवविविधान्तर्जल्पपरित्यागः शुद्धनिश्चयप्रत्याख्यानम् इति
( हरिगीत )
जो निष्कषायी दान्त है भयभीत है संसार से ।
व्यवसाययुत उस शूर को सुखमयी प्रत्याख्यान है || १०५ ॥
जो निष्कषाय है, दान्त (इन्द्रियों को जीतनेवाला) है, शूरवीर है, व्यवसायी है और संसार से भयभीत है; उसे सुखमय प्रत्याख्यान होता है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“जो जीव निश्चयप्रत्याख्यान के योग्य हों; उन जीवों के स्वरूप का यह कथन है । जो समस्त कषायरूपी कलंक के कीचड़ से मुक्त हैं; सभी इन्द्रियों के व्यापार पर विजय प्राप्त कर लेने से, जिन्होंने परमदान्तता (जितेंद्रियपना) प्राप्त की है; सभी परीषहरूपी महासुभटों को जीत लेने से, जिन्होंने अपनी शूरवीरता प्राप्त की है; निश्चय परम तपश्चरण में निरत ह्न ऐसा शुद्धभाव जिन्हें वर्तता है और जो संसारदुःख से भयभीत है; ऐसे सन्तों को यथोचित शुद्धता सहित व्यवहार से चार प्रकार के आहार के त्यागरूप व्यवहारप्रत्याख्यान है ।
दूसरी बात यह है कि शुद्धतारहित व्यवहारप्रत्याख्यान तो मिथ्यादृष्टि पुरुषों को भी चारित्रमोह के उदय के हेतुभूत द्रव्यकर्म और भावकर्म के क्षयोपशम द्वारा क्वचित् कदाचित् संभवित है । इसीलिए निश्चयप्रत्याख्यान ही आसन्नभव्यजीवों के लिए हितरूप है ।
जिसप्रकार सुवर्णपाषाण उपादेय है, अन्धपाषाण नहीं; उसीप्रकार निश्चयप्रत्याख्यान ही उपादेय है, व्यवहारप्रत्याख्यान नहीं । इसलिए यथोचित शुद्धता सहित संसार तथा शरीर संबंधी भोगों की निर्वेगता निश्चयव्याख्यान का कारण है और भविष्यकाल में होनेवाले समस्त मोह-राग-द्वेषादि विविध विभावों का परिहार परमार्थप्रत्याख्यान अनागतकाल में उत्पन्न होनेवाले विविध विकल्पों का परित्याग शुद्धनिश्चयप्रत्याख्यान है । "
अथवा