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निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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एवं भेदाभ्यासं यः करोति जीवकर्मणो: नित्यम् ।
प्रत्याख्यानं शक्तो धर्तुं स संयतो नियमात् ।।१०६।। निश्चयप्रत्याख्यानाध्यायोपसंहारोपन्यासोयम् । य: श्रीमदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतपरमागमार्थविचारक्षम: अशुद्धान्तस्तत्त्वकर्मपुद्गलयोरनादिबन्धनसंबन्धयोर्भेदभेदाभ्यासबलेन करोति, स परमसंयमी निश्चयव्यवहारप्रत्याख्यानं स्वीकरोतीति ।
(रथोद्धता) भाविकालभवभावनिवृत्तः सोहमित्यनुदिनं मुनिनाथः । भावयेदखिलसौख्यनिधानं स्वस्वरूपममलं मलमुक्त्यै ।।१४३।।
(हरिगीत ) जो जीव एवं करम के नित करे भेदाभ्यास को।
वह संयमी धारण करेरेनित्य प्रत्याख्यान को||१०६|| इसप्रकार जो सदा जीव और कर्म के भेद का अभ्यास करता है, वह संयमी नियम से प्रत्याख्यान धारण करने में समर्थ है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
"यह निश्चयप्रत्याख्यान अधिकार के उपसंहार का कथन है। श्रीमद् अरहंत भगवान के मुखारबिन्द से निकले हुए परमागम के अर्थ का विचार करने में समर्थ जो परमसंयमी; अनादि बन्धनरूप अशुद्ध अन्त:तत्त्व और कर्म पुद्गल का भेद, भेदाभ्यास के बल से करता है; वह परमसंयमी निश्चयप्रत्याख्यान और व्यवहारप्रत्याख्यान को स्वीकार करता है।"
उक्त गाथा और टीका में निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार का उपसंहार करते हुए मात्र इतना ही कहा गया है कि जिनेन्द्रकथित आगम के मर्मी मुनिराज तो भगवान आत्मा और पौद्गलिक कर्म के बीच जो भेद है, उसे भलीभाँति जानकर निरन्तर उसी के अभ्यास में रहते हैं; क्योंकि वे निश्चय और व्यवहारप्रत्याख्यान को स्वीकार करनेवाले संत हैं ।।१०६।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पूरे अधिकार के उपसंहार में नौ छन्द लिखते हैं; जिनमें पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(रोला) भाविकाल भवभावों से तो मैं निवृत्त हूँ।
इसप्रकार के भावों को तम नित प्रति भावो।। निज स्वरूपजो सुख निधान उसको हे भाई!
यदि छुटना कर्मफलों से प्रतिदिन भावो ||१४३||