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( पृथ्वी ) जिनप्रभुमुखारविन्दविदितं स्वरूपस्थितं मुनीश्वरमनोगृहान्तरसुरत्नदीपप्रभम् । नमस्यमिह योगिभिर्विजितदृष्टिमोहादिभिः नमामि सुखमंदिरं सहजतत्त्वमुच्चैरदः ।। १५०।। प्रनष्टदुरितोत्रं प्रहतपुण्यकर्मव्रजं
प्रधूतमदनादिकं प्रबलबोधसौधालयम् । प्रणामकृततत्त्ववित् प्रकरणप्रणाशात्मकं
प्रवृद्धगुणमंदिरं प्रहृतमोहरात्रिं नुमः । । १५१ । ।
निर्दोष है, उत्कृष्ट है, संसारसमुद्र में डूबते लोगों को बचाने के लिए नाव के समान है और संकटरूपी दावानल को शान्त करने के लिए जल समान है; इसलिए मैं उस सहजतत्त्व को प्रमोदभाव से नमस्कार करता हूँ ।। १४९ ।।
आठवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (रोला )
जनमुख से विदित और थित है स्वरूप में ।
रत्नदीप सा जगमगात है मुनिमन घट में | मोहकर्म विजयी मुनिवर से नमन योग्य है ।
नियमसार
उस सुखमंदिर सहजतत्त्व को मेरा वंदन || १५०||
जो सहजतत्त्व जिनेन्द्र भगवान के मुखकमल से प्रसिद्ध हुआ है, जो अपने स्वरूप में स्थित है, जो मुनिराजों के मनरूपी घट में सुन्दर रत्नदीपक के समान प्रकाशित हो रहा है, जो इस लोक में दर्शनमोह आदि कर्मों पर विजय प्राप्त किये हुए योगियों के द्वारा नमस्कार करने योग्य है तथा जो सुख का मंदिर है; उस सहजतत्त्व को मैं सदा अत्यन्त भक्तिभाव से नमस्कार करता हूँ ।
इस छन्द में भी उसी सहजतत्त्व की विशेषतायें बताते हुए उसका वंदन किया गया है। अपने स्वरूप में स्थित और जिनेन्द्रभगवान की वाणी में समागत वह सहजतत्त्व मुनियों के मनरूपी घट में रत्नदीपक के समान जगमगा रहा है। जो अतीन्द्रिय सुख का मंदिर है; उस सहजतत्त्व को नमस्कार हो ह्न ऐसा कहा गया है ।। १५० ।।
नौवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र