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निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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(पृथ्वी)
अखंडितमनारतं सकलदोषदूरं परं
भवांबुनिधिमग्नजीवततियानपात्रोपमम् । अथ प्रबलदुर्गवर्गदववह्निकीलालकं नमामि सततं पुनः सहजमेव तत्त्वं मुदा ।।१४९।।
(रोला) जो सुस्थित है धीमानों के हृदय कमल में |
अर जिसने मोहान्धकार का नाश किया है। सहजतत्त्व निज के प्रकाशसेज्योतित होकर।
अरे प्रकाशन मात्र और जयवंत सदा है।।१४८|| तत्त्व में निष्णात बुद्धिवाले जीवों के हृदयकमलरूप अभ्यन्तर में जो सहज आत्मतत्त्व स्थित है; वह सहज आत्मतत्त्व जयवंत है। उस सहज तेज ने मोहान्धकार का नाश किया है और वह सहजतेज निज रस के विस्तार से प्रकाशित ज्ञान के प्रकाशन मात्र है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस छन्द में त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा को सहजतत्त्व से अभिहित किया है और उस त्रिकाली ध्रुव आत्मरूप सहजतत्त्व के गीत गाये हैं। कहा है कि उस सहजतेज ने मोहान्धकार का नाश कर दिया है, वह सहजतत्त्व ज्ञान के प्रकाशन के अतिरिक्त कुछ नहीं है और वह सदा जयवंत वर्तता है।
तात्पर्य यह है कि उसका सर्वथा लोप कभी नहीं होता ।।१४८।। सातवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(रोला) सकल दोष से दूर अखण्डित शाश्वत है जो।
भवसागर में डूबों को नौका समान है।। संकटरूपी दावानल को जल समान जो।
भक्तिभाव से नमस्कार उस सहजतत्त्व को ।।१४९|| जो सहजतत्त्व अखण्डित है, शाश्वत है, सभी दोषों से दूर है, उत्कृष्ट है, भवसागर में डूबे हुए जीवों को नाव के समान है तथा प्रबल संकटों के समूहरूपी दावानल को बुझाने के लिए जल समान है; उस सहजतत्त्व को मैं प्रमोद भाव से नमस्कार करता हूँ।
जिस सहजतत्त्व के गीत विगत छन्द में गाये गये हैं: उसी की महिमा इस छन्द में भी बता रहे हैं। कहा जा रहा है कि वह सहजतत्त्वरूप भगवान आत्मा अखण्डित है, शाश्वत है,