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निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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तथा हित
(वसंततिलका) मुक्त्यंगनालिमपुनर्भवसौख्यमूलं
दुर्भावनातिमिरसंहतिचन्द्रकीर्तिम् । संभावयामि समतामहमुच्चकैस्तां
या संमता भवति संयमिनामजस्रम् ।।१४०।। इस छन्द में रूपक अलंकार के माध्यम से यह कहा गया है कि हे आत्मन् ! तुझमें मोह का नाश करने के लिए स्वाभाविक बल है। इसलिए तू प्रमाद छोड़कर उस बल से मोह राजा को जीतने के लिए सम्यग्ज्ञानरूपी चक्ररत्न को प्राप्त कर और उसका प्रयोग कर, इससे ही मोह राजा अपने अज्ञानमंत्री के साथ नाश को प्राप्त होगा||५७||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज स्वयं दो छन्द लिखते हैं, जिनमें पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) मुक्त्यांगना का भ्रमर अर जो मोक्षसुख का मूल है। दुर्भावनातमविनाशक दिनकरप्रभा समतूल है।। संयमीजन सदा संमत रहें समताभाव से |
मैं भाऊँ समताभाव को अत्यन्त भक्तिभाव से ||१४०|| जो समताभाव; मुक्तिरूपी स्त्री के प्रति भ्रमर के समान है, मोक्ष के सुख का मूल है, दुर्भावनारूपी अंधकार के नाश के लिए चन्द्रमा के प्रकाश के समान है और संयमियों को निरंतर संमत है; टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि मैं उस समताभाव को अत्यंत भक्तिभाव से भाता हूँ।
इस छन्द में संतों को सदा संमत समताभाव का स्वरूप स्पष्ट किया गया है. उसकी महिमा से परिचित कराया गया है, उसे मोक्षसुख का मूल कारण कहा गया है। उसकी उपमा सुन्दर स्त्रियों के ऊपर मंडरानेवाले भौरों से और अन्धकार को नष्ट करनेवाले चन्द्रप्रकाश से दी गई है; क्योंकि इस समता से मुक्तिरूपी स्त्री से समागम होता है और दुर्भावनारूपी अंधकार नष्ट हो जाता है।।
वस्तुत: ऐसा समताभाव ही निश्चयप्रत्याख्यान है। अत: टीकाकार मुनिराज कहते हैं कि मैं इसप्रकार के समताभाव को धारण करता हूँ, उसकी भावना करता हूँ।१४०।।
दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र