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निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
तथा हि
अनुष्टुभ् ) चित्तत्त्वभावनासक्तमतयो यतयो यमम् ।
यतंते यातनाशीलयमनाशनकारणम् ।।१३९।। सम्मं मे सव्वभूदेवेरं मज्झं ण केणवि । आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडिवज्जए । । १०४।। साम्यं मे सर्वभूतेषु वैरं मह्यं न केनचित् ।
आशाम् उत्सृज्य नूनं समाधिः प्रतिपद्यते । । १०४ ।।
इहान्तर्मुखस्य परमतपोधनस्य भावशुद्धिरुक्ता । विमुक्तसकलेन्द्रियव्यापारस्य मम भेदविज्ञानिष्वज्ञानिषु च समता; मित्रामित्रपरिणतेरभावान्न मे केनचिज्जनेन सह वैरं; सहजवैराग्य
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(दोहा)
जिनका चित्त आसक्त है निज आतम के माँहि ।
सावधान संयम विषै उन्हें मरणभय नाँहि ।। १३९||
जिनकी बुद्धि चैतन्यतत्त्व की भावना में आसक्त है ह्र ऐसे यति यम में प्रयत्नशील रहते हैं; संयम में सावधान रहते हैं। वह यम (संयम) यातनाशील यम अर्थात् मृत्यु के नाश क कारण है।
इस छन्द में यही कहा गया है कि जिनकी बुद्धि आत्मानुभव में आसक्त है; ऐसे आत्मानुभवी मुनिराज चारित्र के निर्दोष पालन में सदा सावधान रहते हैं । यही कारण है कि उन्हें मृत्यु का भय नहीं सताता ॥१३९॥।
अब इस गाथा में अंतुर्मख सन्तों की भावशुद्धि का कथन करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
सभी से समभाव मेरा ना किसी से वैर है ।
छोड़ आशाभाव सब मैं समाधि धारण करूँ ||१०४||
सभी जीवों के प्रति मुझे समताभाव है, मेरा किसी के साथ बैर नहीं है। वस्तुत: मैं आशा को छोड़कर समाधि को प्राप्त करता हूँ ।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"इस गाथा में अंतर्मुख परम तपोधन की भावशुद्धि का कथन है । समस्त इन्द्रियों के व्यापार से मुक्त मुझे भेदज्ञानियों तथा अज्ञानियों के प्रति समताभाव है, भिन्न- अभिन्नरूप परिणति के अभाव के कारण मुझे किसी भी प्राणी से बैर-विरोध नहीं है, सहज वैराग्यपरिणति