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निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार उक्तं च श्री सोमदेवपंडितदेवैः ह्र
(वसंततिलका) एकस्त्वमाविशसि जन्मनि संक्षये च
भोक्तुं स्वयं स्वकृतकर्मफलानुबन्धम् । अन्यो न जातु सुखदुःखविधौ सहायः
स्वाजीवनाय मिलितं विटपेटकं ते ।।५५।। यह आत्मा स्वयं ही कर्म करता है और उसका फल भी स्वयं ही भोगता है। स्वयं संसार में घूमता है और स्वयं ही संसार से मुक्त हो जाता है।
इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि यह आत्मा अपने परिणामों को स्वयं अकेला ही करता है और उनके सुख-दुःखरूप फल को स्वयं ही भोगता है। स्वयं की गलती से संसार में अकेला भटकता है और स्वयं अपनी गलती सुधार कर मुक्त भी हो जाता है। इसलिए परसे सहयोग की आकांक्षा छोड़कर हमें स्वयं अपने कल्याण के मार्ग में लगना चाहिए||५४||
इसके बाद टीकाकार 'उक्तं च श्री सोमदेवपंडितदेवैः ह्न पण्डित सोमदेव के द्वारा भी कहा गया है' ह ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(वीर) जनम-मरण के सुख-दुख तमने स्वयं अकेले भोगे हैं। मात-पिता सुत-सुता बन्धुजन कोई साथ न देते हैं।। यह सब टोली धूर्तजनों की अपने-अपने स्वारथ से।
लगी हुई है साथ तुम्हारे पर न कोई तुम्हारे हैं ।।५५|| स्वयं किये गये कर्म के फलानुबंध को स्वयं भोगने के लिए तू अकेला ही जन्म और मृत्यु में प्रवेश करता है। अन्य कोई स्त्री-पुत्र-मित्रादि सुख-दुःख में सहायक नहीं होते, साथी नहीं होते। ये सब ठगों की टोली मात्र अपनी आजीविका के लिए तुझे मिली है।
यहाँ जो कुटुम्बीजनों को धूर्तों की टोली कहा है; वह उनसे द्वेष कराने के लिए नहीं कहा है; उनसे एकत्व-ममत्व तोड़ने के लिए कहा है। वस्तुत: बात तो यह है कि वे तेरा सहयोग कर नहीं सकते। यदि वे तेरा सहयोग करना चाहें, तब भी नहीं कर सकते; क्योंकि प्रत्येक जीव को अपने किये कर्मों का फल स्वयं ही भोगना पड़ता है। कोई जीव किसी दूसरे का भला-बुरा कर ही नहीं सकता। किसी दूसरे के भरोसे बैठे रहना समझदारी का काम नहीं है। इसलिए 'अपनी मदद आप करो' ह्न यही कहना चाहते हैं आचार्यदेव ।।५५।। १. श्री सोमदेवपंडितदेव : यशस्तिलकचंपूकाव्य, दूसरा अधिकार, छन्द ११९