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निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः।
शेषा मे बाह्या भावा: सर्वे संयोगलक्षणाः ।।१०२।। एकत्वभावनापरिणतस्य सम्यग्ज्ञानिनो लक्षणकथनमिदम् । अखिलसंसृतिनन्दनतरुमूलालवालांभ:पूरपरिपूर्णप्रणालिकावत्संस्थितकलेवरसंभवहेतुभूत द्रव्यभावकर्माभावादेकः, स एव निखिलक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पकोलाहलनिर्मुक्तसहजशुद्धज्ञानचेतनामतीन्द्रियं भुंजानः सन् शाश्वतो भूत्वा ममोपादेयरूपेण तिष्ठति, यस्त्रिकालनिरुपाधिस्वभावत्वात् निरावरणज्ञानदर्शनलक्षणलक्षितः कारणपरमात्मा; ये शुभाशुभकर्मसंयोगसंभवाः शेषा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहा: स्वस्वरूपाद्वाह्यास्ते सर्वे; इति मम निश्चयः ।
(मालिनी) अथ मम परमात्मा शाश्वत: कश्चिदेकः।
सहजपरमचिच्चिन्तामणिनित्यशुद्धः।। निरवधिनिजदिव्यज्ञानदृग्भ्यां समृद्धः।
किमिह बहुविकल्पैर्मे फलं बाह्यभावैः ।।१३८।। मेरा तो ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला एक शाश्वत आत्मा ही है, शेष सब संयोग लक्षणवाले भाव मुझसे बाा हैं. पथक हैं।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“यह एकत्वभावना से परिणत सम्यग्ज्ञानी के लक्षण का निरूपण है। समस्त संसाररूपी नंदनवन के वृक्षों की जड़ के आसपास क्यारियों में पानी भरने के लिए जलप्रवाह से परिपूर्ण नाली के समान वर्तता हुआ जो शरीर, उसकी उत्पत्ति में हेतभूत द्रव्यकर्म व भावकर्म से रहित होने से जो आत्मा एक है, वह त्रिकाल निरुपाधिक स्वभाववाला होने से निरावरण ज्ञान-दर्शनलक्षण से लक्षित कारणपरमात्मा है।
वह कारणपरमात्मा समस्त क्रियाकाण्ड के आडम्बर के विविध विकल्परूप कोलाहल से रहित, सहज शुद्ध ज्ञानचेतना को अतीन्द्रियरूप से भोगता हुआ शाश्वत रहकर मेरे लिए उपादेयरूप रहता है। और जोशुभाशुभ कर्म के संयोग से उत्पन्न होनेवाले शेष सभी बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह हैं, वे सब अपने आत्मा से बाह्य हैं ह्न ऐसा मेरा निश्चय है।"
इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि मैं ज्ञानदर्शनस्वभावी एक आत्मा हूँ, शेष जो शरीरादि संयोग हैं; वे सभी मुझसे भिन्न हैं। मेरा उनसे कोई संबंध नहीं है। टीका में अलंकारिक भाषा में बताया गया है कि यह शरीर संसार रूपी बाग को हरा-भरा रखनेवाला है। एक ज्ञानदर्शनलक्षण से पहिचानने में आनेवाला आत्मा ह्न कारण