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( आर्या )
को नाम वक्ति विद्वान् मम च परद्रव्यमेतदेव स्यात् । निजमहिमानं जानन् गुरुचरणसमर्च्चनासमुद्भूतम् ।। १३२ ।। पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं वज्जिदो अप्पा । सोहं इदि चिंतिज्जो तत्थेव य कुणदि थिरभावं । । ९८ ।।
प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैर्विवर्जित आत्मा ।
सोहमिति चिंतयन् तत्रैव च करोति स्थिरभावम् ।। ९८ ।।
अत्र बन्धनिर्मुक्तमात्मानं भावयेदिति भव्यस्य शिक्षणमुक्तम् । शुभाशुभमनोवाक्कायउसका तो मात्र नाम ही सुख है, वस्तुतः वह सुख नहीं, दुःख ही है। ज्ञानी जीव उस लौकिक सुख को छोड़कर ज्ञानानन्दस्वभावी अपने आत्मा को प्राप्त करते हैं ।। १३०-१३१ ॥
चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( दोहा )
नियमसार
गुरुचरणों की भक्ति से जाने निज माहात्म्य |
ऐसा बुध कैसे कहे मेरा यह परद्रव्य ।। १३२ ।।
गुरु चरणों की भक्ति के प्रसाद से उत्पन्न हुई अपने आत्मा की महिमा को जाननेवाला कौन विद्वान यह कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा है।
तात्पर्य यह है कि कोई भी ज्ञानी समझदार व्यक्ति यह नहीं कह सकता है कि यह परद्रव्य मेरा है ।। १३२ ।।
अब आगामी गाथा में यह बताते हैं कि अबंधस्वभावी आत्मा का ध्यान करना ही धर्म है I गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
( हरिगीत )
प्रकृति थिति अनुभाग और प्रदेश बंध बिन आतमा ।
मैं हूँ वही ह्न यह सोचता ज्ञानी करे थिरता वहाँ ||१८||
प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागबंध से रहित जो आत्मा है; मैं वही हूँ । ह्र ऐसा चिन्तवन करता हुआ ज्ञानी उसी में स्थिर भाव करता है ।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ बंध रहित आत्मा को भाना चाहिए ह्र ऐसी शिक्षा भव्यों को दी गई है। शुभाशुभ मन-वचन-काय संबंधी कर्मों से प्रकृति और प्रदेश बंध होते हैं और चार