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नियमसार
तथा हि ह्न
(वसंततिलका) आत्मानमात्मनि निजात्मगुणाढ्यमात्मा
जानाति पश्यति च पंचमभावमेकम् । तत्याज नैव सहजं परभावमन्यं गृह्णाति नैव खलु पौद्गलिकं विकारम् ।।१२९।।
(शार्दूलविक्रीडित) मत्स्वान्तं मयि लग्नमेतदनिशं चिन्मात्रचिंतामणावन्यद्रव्यकृताग्रहोद्भवमिमं मुक्त्वाधुना विग्रहम् । तच्चित्रं न विशुद्धपूर्णसहजज्ञानात्मने शर्मणे।
देवानाममृताशनोद्भवरुचिं ज्ञात्वा किमन्याशने ।।१३०॥ हैं, ग्रहण करने योग्य नहीं; उन्हें ग्रहण नहीं करता और जिसे अनादिकाल से ग्रहण किया हुआ है ह ऐसा जो अपना ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव है, उसे जो छोड़ता नहीं है तथा जो सभी पदार्थों को देखता-जानता है, वह स्वसंवेद्य पदार्थ अर्थात् स्वानुभूतिगम्य पदार्थ मैं हूँ। ह ज्ञानी ऐसा चिन्तवन करते हैं। इसी को धर्मध्यान कहते हैं, प्रत्याख्यान कहते हैं। साधर्मी भाई-बहिनों को करने योग्य एकमात्र कार्य यही है।।४९||
इसके बाद टीकाकार मनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव चार छन्द स्वयं लिखते हैं: जिसमें पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) आतमा में आतमा को जानता है देखता। बस एक पंचमभाव है जो नंतगुणमय आतमा || उस आतमा ने आजतक छोड़ा न पंचमभाव को।
और जो न ग्रहण करता पुद्गलिक परभाव को।।१२९।। यह आत्मा, आत्मा में अपने आत्मा संबंधी गुणों से समृद्ध आत्मा को अर्थात् एक पंचमभाव को जानता-देखता है; क्योंकि इसने उस सहज पंचमभाव को कभी छोड़ा ही नहीं है और यह पौद्गलिक विकार रूप परभावों को कभी ग्रहण भी नहीं करता।
उक्त कलश में यह कहा गया है कि यह आत्मा, अनंत गुणों से समृद्ध पंचमभावरूप अपने आत्मा को अपने आत्मा में ही जानता-देखता है। इस आत्मा ने उक्त परमपारिणामिकभावरूप पंचमभाव को कभी छोड़ा नहीं है और विकाररूप पौद्गलिक विभावभावों को कभी ग्रहण नहीं किया ||१२९||