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परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
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(वसंततिलका) ध्यानावलीमपि च शदनयो न वक्ति
व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे। सास्तीत्युवाच सततं व्यवहारमार्ग
स्तत्त्वं जिनेन्द्र तदहो महदिन्द्रजालम् ।।११९।। सद्बोधमंडनमिदं परमात्मतत्त्वं ____ मुक्तं विकल्पनिकरैरखिलैः समन्तात् । नास्त्येष सर्वनयजातगतप्रपंचो ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता ।।१२०।।
(रोला) अरे इन्द्रियों से अतीत अन्तर्मुख निष्क्रिय ।
ध्यान-ध्येय के जल्पजाल से पार ध्यान जो। अरे विकल्पातीत आतमा की अनुभूति।
ही है शुक्लध्यान योगिजन ऐसा कहते।।४२।। जो ध्यान निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है, ध्यान और ध्येय के विकल्पों से रहित है और अन्तर्मुख है; उस ध्यान को योगीजन शुक्लध्यान कहते हैं।
उक्त कलश में शुक्लध्यान को योगियों की साक्षीपूर्वक राग और भेद की क्रिया से रहित, इन्द्रियों से अतीत, ध्यान और ध्येय के विकल्पों से रहित तथा अन्तर्मुख कहा है ।।४२।। इसके उपरान्त टीकाकार दो छन्द स्वयं लिखते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(रोला) सदा प्रगट कल्याणरूप परमात्मतत्त्व में|
ध्यानावलि है कभी कहे न परमशुद्धनय|| ऐसा तो व्यवहारमार्ग में ही कहते हैं।
हेजिनवरयह तो सब अदभत इन्द्रजाल है।।११९।। ज्ञानतत्त्व का आभूषण परमात्मतत्त्व यह।
अरे विकल्पों के समूह से सदा मुक्त है। नय समूहगत यह प्रपंच न आत्मतत्त्व में।
तब ध्यानावलि कैसे आई कहो जिनेश्वर||१२०||