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नियमसार
मात्मसुखाभिलाषी य: परमपुरुषार्थपरायण: शुद्धरत्नत्रयात्मकम् आत्मानं भावयति स परमतपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्तः।।
(वसंततिलका) त्यक्त्वा विभावमखिलं व्यवहारमार्ग
रत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदी । शुद्धात्मतत्त्वनियतं निजबोधमेकं ।
__ श्रद्धानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे ।।१२२।। निश्चयरत्नत्रय है। इसप्रकार भगवान परमात्मा के सुख का अभिलाषी जो परमपुरुषार्थपरायण पुरुष शुद्धरत्नत्रयात्मक आत्मा को भाता है; उस परमतपोधन को ही शास्त्रों में निश्चयप्रतिक्रमण कहा है।" __इस गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि मिथ्यादर्शनज्ञान-चारित्र के त्यागी और निश्चयरत्नत्रय के धारक सन्त ही निश्चयप्रतिक्रमण हैं।
यहाँ मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अरिहंत भगवान द्वारा प्रतिपादित मार्ग से विपरीत मार्ग के श्रद्धान का नाम मिथ्यादर्शन है। अवस्तु में वस्तुपने की मान्यता मिथ्याज्ञान और अरहंत के विरोधियों द्वारा निरूपित चारित्र मिथ्याचारित्र है। इन्हें छोड़कर अरहंतों द्वारा प्रतिपादित अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा का श्रद्धान, ज्ञान और आचरण निश्चयचारित्र है। ऐसे निश्चयरत्नत्रय के धारक श्रमण साक्षात् प्रतिक्रमण हैं ।।११।। इसके उपरांत टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न
(दोहा) जानकार निजतत्त्व के तज विभाव व्यवहार।
आत्मज्ञान श्रद्धानमय धरें विमल आचार||१२२।। व्यवहाररत्नत्रय और समस्त विभावभावों को छोडकर निजात्मा का अनुभवी तत्त्वों का जानकार बुद्धिमान पुरुष; शुद्धात्मतत्त्व के ज्ञान, श्रद्धान एवं आचरणरूप परिणमित होता है। __इस छन्द में मात्र यही कहा गया है कि क्रोधादि विभाव भावों के समान व्यवहाररत्नत्रय संबंधी शुभराग भी हेय है, छोड़ने योग्य है; क्योंकि उसे छोड़े बिना निश्चयप्रतिक्रमण संभव नहीं है। उक्त विभाव भावों और व्यवहाररत्नत्रय संबंधी विकल्पों को छोड़कर जो मुनिराज शुद्धात्मतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान और आचरणरूप परिणमित होते हैं; वेसन्तस्वयं ही प्रतिक्रमणस्वरूप हैं।।१२२।।