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परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
अत्र ध्यानमेकमुपादेयमित्युक्तम् । कश्चित् परमजिनयोगीश्वरः साधुः अत्यासन्नभव्यजीवः अध्यात्मभाषयोक्तस्वात्माश्रितनिश्चयधर्मध्याननिलीन: निर्भेदरूपेण स्थितः, अथवा सकल
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क्रियाकांडाडंबरव्यवहारनयात्मकभेदकरणध्यानध्येयविकल्पनिर्मुक्तनिखिलकरणग्रामा
गोचरपरमतत्त्वशुद्धान्तस्तत्त्वविषयभेदकल्पना निरपेक्षनिश्चयशुक्लध्यानस्वरूपे तिष्ठति च, स च निरवशेषेणान्तर्मुखतया प्रशस्ताप्रशस्तमस्तमोहरागद्वेषाणां परित्यागं करोति, तस्मात् स्वात्माश्रितनिश्चयधर्मशुक्लध्यानद्वितयमेव सर्वातिचाराणां प्रतिक्रमणमिति ।
( अनुष्टुभ् ) शुक्लध्यानप्रदीपोऽयं यस्य चित्तालये बभौ ।
स योगी तस्य शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति स्वयम् ।।१२४।।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्र “यहाँ एकमात्र ध्यान ही उपादेय है ह्न यह कहा गया है । कोई अति आसन्नभव्य परमजिन योगीश्वर साधु, अध्यात्मभाषा में पूर्वोक्त स्वात्माश्रित निश्चय धर्मध्यान में लीन होता हुआ अभेदरूप से स्थित रहता है, अथवा सभीप्रकार के क्रियाकाण्ड के आडम्बर से रहित, व्यवहारनयात्मक भेद संबंधी और ध्यान- ध्येय संबंधी विकल्पों से रहित, सभी इन्द्रियों के अगोचर परमतत्त्व - शुद्ध अन्तः तत्त्व संबंधी भेदकल्पना से निरपेक्ष निश्चय शुक्लध्यान में स्थित रहता है; वह साधु सम्पूर्णत: अन्तर्मुख होने से प्रशस्त - अप्रशस्त समस्त मोह-राग-द्वेष का परित्याग करता है ।
इससे यह सहज ही सिद्ध होता है कि अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले निश्चय धर्मध्यान और निश्चय शुक्लध्यान ह्न ये दो ध्यान ही सभीप्रकार के अतिचारों के प्रतिक्रमण हैं ।'
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इस गाथा और इसकी टीका में मात्र यही कहा गया है कि एकमात्र ध्यान ही धर्म है; क्योंकि निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान में धर्म के सभी अंग समाहित हो जाते हैं। यही कारण है कि यहाँ कहा गया है कि ध्यान में सभी अतिचारों का प्रतिक्रमण हो जाता है, सभी अतिचारों का निराकरण हो जाता है ॥९३॥
इसके बाद मुनिराज एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
चित्तमंदिर में सदा दीपक जले शुक्लध्यान का ।
उस योगि को शुद्धातमा प्रत्यक्ष होता है सदा ||१२४||
यह शुक्लध्यानरूपी दीपक जिनके मनमंदिर में जलता है, उस योगी को सदा शुद्धात्मा प्रत्यक्ष होता है ।