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नियमसार
केवलणाणसहावो केवलदसणसहावसुहमइओ। केवलसत्तिसहावो सो हं इदि चिंतए णाणी ।।१६।।
केवलज्ञानस्वभाव: केवलदर्शनस्वभावः सुखमयः।
केवलशक्तिस्वभावः सोहमिति चिंतयेत् ज्ञानी ।।९६।। अनन्तचतुष्टयात्मकनिजात्मध्यानोपदेशोपन्यासोयम्। समस्तबाह्यप्रपंचवासनाविनिर्मुक्तस्य निरवशेषेणान्तर्मुखस्य परमतत्त्वज्ञानिनो जीवस्य शिक्षा प्रोक्ता । कथंकारकम् ?
साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण, शुद्धस्पर्शरसगन्धवर्णानामाधारभूतशुद्धपुद्गलपरमाणुवत्केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवलशक्तियुक्तपरमात्मा यः सोहमिति भावना कर्तव्या ज्ञानिनेति; निश्चयेन सहजज्ञानस्वरूपोहम, सहजदर्शनस्वरूपोहम्, सहजचारित्रस्वरूपोहम्, सहजचिच्छक्तिस्वरूपोहम् इति भावना कर्त्तव्या चेति ।
इस कलश में यही कहा गया है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित चारित्र धारण करनेवाले सन्तों के तो प्रत्याख्यान (त्याग) सदा वर्तता है। भव का अभाव करनेवाले प्रत्याख्यान की मैं सदा वंदना करता हूँ।।१२७।।
अब इस गाथा में यह बताते हैं कि ज्ञानी यह विचारते हैं कि मैं अनन्तचतुष्टयस्वरूप हूँ। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
( हरिगीत ) ज्ञानी विचारेंइसतरह यह चिन्तवन उनका सदा।
केवल्यदर्शन-ज्ञान-सुख-शक्तिस्वभावी हूँसदा ||९६|| ज्ञानी इसप्रकार चिन्तवन करते हैं कि मैं केवलज्ञानस्वभावी हूँ, केवलदर्शनस्वभावी हूँ, मैं सुखमय (केवलसुखस्वभावी) हूँ और केवल-शक्तिस्वभावी हूँ।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यह अनंतचतुष्टयात्मक निज आत्मा के ध्यान के उपदेश का कथन है। यहाँसमस्त बाह्य प्रपंच की वासना से विमुक्त, सम्पूर्णत: अन्तर्मुख, परमतत्त्वज्ञानी जीव को शिक्षा दी गई है।
किसप्रकार की शिक्षा दी गई?
ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं कि सादि-अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारनय से शुद्ध स्पर्श-रस-गंध-वर्ण के आधारभूत शुद्ध पुद्गल परमाणु की भाँति; मैं केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख तथा केवलशक्तियुक्त परमात्मा हूँ त ज्ञानी को ऐसी भावना करना चाहिए और निश्चयनय से मैं सहजदर्शनस्वरूप हूँ, मैं सहजचारित्रस्वरूप हूँ तथा मैं सहज चित्-शक्तिस्वरूप हूँ ह्र ऐसी भावना करना चाहिए।"