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नियमसार
निश्चयनयत: प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनाप्रपंचपरिहारेण शुद्धज्ञानभावनासेवाप्रसादादभिनवशुभाशुभद्रव्यभावकर्मणां संवरः प्रत्याख्यानम् । य: सदान्तर्मुखपरिणत्या परमकलाधारमत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति तस्य नित्यं प्रत्याख्यानं भवतीति। तथा चोक्तं समयसारेह्न
सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं ।
तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं ।।४६।। निश्चयनय से प्रशस्त-अप्रशस्त वचन रचना के प्रपंच (विस्तार) के परिहार के द्वारा शुद्धज्ञानभावना की सेवा के प्रसाद से नये शुभाशुभ द्रव्यकर्मों और भावकर्मों का संवर होना निश्चयप्रत्याख्यान है। जो अंतर्मुख परिणति के द्वारा परमकला के आधाररूप अति अपूर्व आत्मा को सदा ध्याता है, उसे नित्यप्रत्याख्यान है।"
इस गाथा और इसकी टीका में अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा गया है कि आत्मा का ध्यान ही प्रत्याख्यान है; क्योंकि ध्यान अवस्था में निश्चय-व्यवहार प्रत्याख्यान (त्याग) सहज ही प्रगट हो जाते हैं ।।९५||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथा चोक्तं समयसारे ह्न तथा समयसार में भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे।
तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है।।४६|| जिसकारण यह आत्मा अपने आत्मा से भिन्न समस्त पर-पदार्थों का 'वे पर हैं'ह्न ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, त्याग करता है; उसी कारण प्रत्याख्यान ज्ञान ही है। ऐसा नियम से जानना चाहिए।
आत्मा को जानना ज्ञान है और आत्मा को ही लगातार जानते रहना प्रत्याख्यान है, त्याग है, ध्यान है । प्रत्याख्यान, त्याग और ध्यान ह्न ये सभी चारित्रगुण के ही निर्मल परिणमन हैं; जो ज्ञान की स्थिरतारूप ही हैं। अत: यह ठीक ही कहा है कि स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है।
तात्पर्य यह है कि अपने ज्ञान में त्यागरूप अवस्था होना ही प्रत्याख्यान है, त्याग है; अन्य कुछ नहीं॥४६||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव 'तथा समयसारव्याख्यायां ह्न तथा समयसार की व्याख्या आत्मख्याति टीका में भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र १.समयसार, गाथा ३४