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नियमसार
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायांतात्पर्यवृत्तौ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकारः पंचमः श्रुतस्कन्धः। तीसरे छन्द में भी याद किया गया है और वहाँ इन्हें सिद्धांत, तर्क और व्याकरण ह इन तीनों विधाओं से समृद्ध बताया गया है। ये पद्मप्रभमलधारिदेव के साक्षात् गुरु हैं।।१२६|
परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार की समाप्ति के अवसर पर टीकाकार जो पंक्ति लिखते हैं; उसका भाव इसप्रकार है ह्न ___ “इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार नामक पंचम श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ।" __यहाँ नियमसार एवं उसकी तात्पर्यवृत्ति टीका के साथ-साथ डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका में परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार नामक पंचम श्रुतस्कन्ध भी समाप्त होता है।
'अकेले ही मरना होगा, अकेले ही पैदा होना होगा, सुख-दुःख भी अकेले ही भोगना होगा' ह्र इसप्रकार के चिन्तन से यदि खेद उत्पन्न होता है तो हमें अपनी चिंतन प्रक्रिया पर गहराई से विचार करना चाहिए। यदि हमारी चिन्तन-प्रक्रिया की दिशा सही हो तो आह्लाद आना ही चाहिए । जरा गहराई से विचार करें तो सबकुछ सहज ही स्पष्ट हो जावेगा।
आपको यह शिकायत हो कि सुख-दुःख, जीवन-मरण सबकुछ आपको अकेले ही भोगने पड़ते हैं; कोई सगा-संबंधी भी साथ नहीं देता । क्या आपकी यह शिकायत उचित है ?
जरा इस पर गौर कीजिए कि कोई साथ नहीं देता है या दे नहीं सकता ? वस्तुस्वरूप के अनुसार जब कोई साथ दे ही नहीं सकता, तब ‘साथ नहीं देता' ह्न यह प्रश्न ही कहाँ रह जाता है ?
जब हम ऐसा सोचते हैं कि कोई साथ नहीं देता तो हमें द्वेष उत्पन्न होता है; पर यदि यह सोचें कि कोई साथ दे नहीं सकता तो सहज ही उदासीनता उत्पन्न होगी, वीतरागभाव जागृत होगा।
ह्न बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ-६७