________________
निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ ह्र
तथा हि ह्र
( अनुष्टुभ् ) केवलज्ञानदृक्सौख्यस्वभावं तत्परं महः । तत्र ज्ञाते न किं ज्ञातं दृष्टे दृष्टं श्रुते श्रुतम् ।। ४८ ।।
( मालिनी )
जयति स परमात्मा केवलज्ञानमूर्तिः सकलविमलदृष्टि: शाश्वतानंदरूपः । सहजपरमचिच्छक्त्यात्मकः शाश्वतोयं
निखिलमुनिजनानां चित्तपंकेजहंस: ।।१२८।।
२२९
इस गाथा में यह कहा गया है कि ज्ञानी ऐसा सोचते हैं कि मैं अनन्तचतुष्टयस्वरूप हूँ; पर टीकाकार कहते हैं कि ज्ञानी को ऐसा सोचना चाहिए कि मैं अनन्तचतुष्टयस्वरूप हूँ ।
आप कह सकते हैं कि इसमें क्या अंतर है, एक ही बात तो है; पर भाईसाहब ! गाथा में कहा है कि ज्ञानी ऐसा सोचते हैं और टीका में कहते हैं कि सोचना चाहिए ह्न यह साधारण अंतर नहीं है; क्योंकि जब ज्ञानी सदा ऐसा सोचते ही हैं तो फिर यह कहने की क्या आवश्यकता है कि उन्हें ऐसा सोचना चाहिए ? अरे, भाई ! उपयोग बार-बार बाहर चला जाता है; इसलिए आचार्यदेव अपने शिष्यों को ऐसा उपदेश देते हैं कि सदा इसीप्रकार के चिन्तन में रत रहो ॥९६॥
इसके उपरान्त मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ' तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ ह्र तथा एकत्वसप्तति में भी कहा है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र (रोला ) केवलदर्शनज्ञानसौरव्यमय परमतेज वह ।
उसे देखते किसे न देखा कहना मुश्किल ॥
उसे जानते किसे न जाना कहना मुश्किल ।
उसे सुना तो किसे न सुना कहना मुश्किल ॥४८॥
वह परमतेज केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवलसौख्यस्वभावी है। उसे जानते हुए क्या नहीं जाना, उसे देखते हुए क्या नहीं देखा और उसका श्रवण करते हुए क्या नहीं सुना ? इस छन्द में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि अनन्तचतुष्टय स्वभावी जो अपना आत्मा है; उसे जान लेने पर, , देख लेने पर, सुन लेने पर; कुछ जानना - देखना-सुनना १. पद्मनन्दिपंचविंशतिका, एकत्वसप्तति अधिकार, छन्द २०