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झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं । तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ।। ९३ ।। ध्याननिलीनः साधुः परित्यागं करोति सर्वदोषाणाम् । तस्मात्तु ध्यानमेव हि सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणम् ।। ९३ ।।
( हरिगीत )
रे ध्यान- ध्येय विकल्प भी सब कल्पना में रम्य हैं।
नियमसार
इक आतमा के ध्यान बिन सब भाव भव के मूल हैं ।। यह जानकर शुध सहज परमानन्द अमृत बाढ में । डुबकी लगाकर सन्तजन हों मगन परमानन्द में || १२३||
आत्मध्यान के अतिरिक्त अन्य सभी भाव घोर संसार के मूल हैं, ध्येय-ध्यान के विकल्पों की प्रमुखता वाला शुभभाव और शुभक्रियारूप तप मात्र कल्पना में ही रमणीय लगता है।
ऐसा जानकर बुद्धिमान पुरुष सहज परमानन्दरूपी अमृत की बाढ में डूबते हुए एकमात्र सहज परमात्मा का आश्रय करते हैं।
उक्त छन्द में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि आत्मध्यान को छोड़कर धर्म के नाम पर चलनेवाला जो भी क्रियाकाण्ड है, जो भी शुभभाव हैं; वे सभी संसार के कारण हैं। अधिक कहाँ तक कहे कि जब ध्यान- ध्येय संबंधी विकल्प भी रम्य नहीं है, करने योग्य नहीं है; तब अन्य विकल्पों की तो बात ही क्या करें?
अन्त में बुद्धिमान व्यक्ति की वृत्ति और प्रवृत्ति की चर्चा करते हुए कहा गया है कि बुद्धिमान व्यक्ति तो अतीन्द्रिय आनन्दरूपी अमृत के सागर में डुबकी लगाते हैं, एकमात्र निज आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और ध्यान में ही लीन रहते हैं । यदि हमें अपना कल्याण करना है तो हमें भी स्वयं में समा जाना चाहिए ।। १२३ ।।
अब इस गाथा में यह कहते हैं कि एकमात्र ध्यान ही उपादेय है ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
निजध्यान में लवलीन साधु सर्व दोषों को तजे ।
बस इसलिए यह ध्यान ही सर्वातिचारी प्रतिक्रमण ॥९३॥
ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करते हैं । इसलिए वस्तुत: ध्यान ही सभी अतिचारों का प्रतिक्रमण है ।