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नियमसार
कलासनाथनिश्चयशुक्लध्यानं च ध्यात्वा यः परमभावभावनापरिणत: भव्यवरपुंडरीकः निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवति, परमजिनेन्द्रवदनारविन्दविनिर्गतद्रव्यश्रुतेषु विदितमिति । ध्यानेषु च चतुर्षु हेयमाद्यं ध्यानद्वितयं, त्रितयं तावदुपादेयं, सर्वदोपादेयं च चतुर्थमिति । तथा चोक्तम् ह्न
( अनुष्टुभ् ) निष्क्रियं करणातीतं ध्यानध्येयविवर्जितम् । अन्तर्मुखं तु यद्ध्यानं तच्छुक्लं योगिनो विदुः ।।४२।।
इन्द्रियातीत और अभेद परमकला सहित निश्चय शुक्लध्यान ह्न इन धर्म और शुक्ल ध्यानों को ध्याकर जो भव्योत्तम परमभाव की भावनारूप से परिणमित होता है; वह निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप है । ह्र ऐसा जिनेन्द्र भगवान के मुखकमल में से निकले द्रव्यश्रुत में कहा है । उक्त चार ध्यानों में आरंभ के आर्त और रौद्र ह्न ये दो ध्यान हेय हैं, धर्मध्यान नामक तीसरा ध्यान उपादेय है और शुक्लध्यान नामक चौथा ध्यान सर्वदा उपादेय है ।"
यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि टीकाकार मुनिराज ने आर्तध्यान में इष्टवियोगज और अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान की चर्चा तो की, पर वेदनाजन्य और निदान नामक आर्तध्यान की चर्चा नहीं की। इसीप्रकार रौद्रध्यान के भेदों की भी चर्चा न करके मात्र इतना ही कह दिया कि द्वेषभाव से उत्पन्न होनेवाला रौद्रध्यान ।
अरे भाई ! यह कोई बात नहीं है; क्योंकि यहाँ ध्यानों के भेद-प्रभेदों की चर्चा करना इष्ट नहीं है। यदि होता तो फिर धर्मध्यान और शुक्लध्यानों के भेदों की भी चर्चा होती। यहाँ तो मात्र यह बताना अभीष्ट है कि धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही प्रतिक्रमणस्वरूप हैं, उपादेय हैं ।
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में मात्र इतना ही कहा गया है कि आरंभ के आर्त और रौद्र ह्न ये दो ध्यान नरकादि अशुभ गतियों के कारण हैं, दु:खरूप हैं; अतः हेय हैं, छोड़ने योग्य हैं और धर्मध्यान उपादेय है तथा शुक्लध्यान परम उपादेय है। ये उपादेय ध्यान ही प्रतिक्रमणरूप हैं; इस कारण इनके धारकों को गाथा में अभेदनय से प्रतिक्रमणस्वरूप ही कहा है ।। ८९ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव 'तथा चोक्तम् ह्न तथा कहा भी है' ह्र लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
१. ग्रंथ का नाम और श्लोक संख्या अनुपलब्ध है।