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शुद्धभाव अधिकार
(द्रतविलंबित) भवभोगपराङ्मुख हे यते पदमिदं भवहेतुविनाशनम् । भज निजात्मनिमग्नमते पुनस्तव किमध्रुववस्तुनि चिन्तया ।।६५।। समयसारमनाकुलमच्युतं जननमृत्युरुजादिविवर्जितम् । सहजनिर्मलशर्मसुधामयं समरसेन सदा परिपूजये ।।६६।।
(इन्द्रवज्रा) इत्थं निजज्ञेन निजात्मतत्त्वमुक्तं पुरा सूत्रकृता विशुद्धम् ।
बुद्ध्वा च यन्मुक्तिमुपैति भव्यस्तद्भावयाम्युत्तमशर्मणेऽहम् ।।६७।। सहजगुणोंरूपी मणियों की खान, सर्वतत्त्वों में सारभूत आत्मतत्त्व की आराधना करने की प्रेरणा दी गई है।।६४।। चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(दोहा) भवभोगों से पराङ्गमुख भवदुखनाशन हेतु।
ध्रुव निज आतम को भजो अध्रुव से क्या हेतु||६५|| भव और भोगों से पराङ्गमुख हे यति ! यह ध्रुवपद संसार के कारणों का विनाश करनेवाला है। निजात्मा में मग्न होने की भावनावाले हे यतिगणो ! इस ध्रुवपद को ही भजो; अध्रुव वस्तुओं की चिन्ता से तुम्हें क्या प्रयोजन है ?
इस छन्द में संसार और सांसारिक भोगों से विरक्त सन्तों से यह कहा गया है कि इस दुखमय संसार के कारणों के अभाव का हेतुभूत त्रिकालीध्रुव आत्मतत्त्व की आराधना करो, अध्रुव विनाशशील वस्तुओं के चिन्तन से क्या प्रयोजन है ?||६५।। पाँचवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(दोहा) जन्म मृत्यु रोगादि से रहित अनाकुल आत्म |
अमृतमय अच्युत अमल मैं बंदूं शुद्धात्म ||६६|| जो अनाकुल है, अच्युत है, जन्म-मृत्यु-रोगादि से रहित है, सहज निर्मल सुखामृतमय है; उस समयसाररूप शुद्धात्मा को मैं समताभाव से सदा पूजता हूँ।
यहाँ टीकाकार मुनिराज उत्तम पुरुष में बात करते हुए कह रहे हैं कि मैं तो सदा समताभाव से समयसाररूप शुद्धात्मा की आराधना करता हूँ। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक आत्मार्थी को निरन्तर निज भगवान आत्मा की आराधना करना चाहिए।।६६||